नई दिल्लीः 'हिंदी साहित्य का इतिहास: अध्ययन की नयी दृष्टि, विचारधारा और विमर्श' व्याख्यानमाला काशी हिंदू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर प्रभाकर सिंह के सहयोग से वाणी प्रकाशन की डिजिटल शिक्षा श्रृंखला के तहत जारी है. इस श्रृंखला का ग्यारहवां व्याख्यान काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी के प्रोफ़ेसर और हिंदी विभाग के पूर्व आचार्य अवधेश प्रधान ने दिया. उनका विषय था, 'हिंदी साहित्य के इतिहास की जनपदीय भूमिका'. कवि, आलोचक और चिन्तक अवधेश प्रधान ने कहा कि मुख्यधारा के साहित्य और भाषा के साथ हिंदी साहित्य में जनपदीय अध्ययन और जनपदीय चेतना पर भी बृहद शोध कार्य हुआ है. ज़रूरत है उसे नये सिरे से देखने की. रामनरेश त्रिपाठी, मिश्र बन्धु, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के यहां इसके सूत्र देखे जा सकते हैं, जबकि राहुल सांकृत्यायन और वासुदेव शरण अग्रवाल ने जनपदीय अध्ययन की विशद रूपरेखा प्रस्तुत की. वासुदेव शरण अग्रवाल भूमि, जन और जन द्वारा निर्मित संस्कृति से जनपदीय अध्ययन के दार्शनिक आधार को खोजते हैं. इस अध्ययन में वृक्ष, वनस्पति, चित्र और सांस्कृतिक अवयव के अध्ययन से जनपदीय दृष्टि को नयी दिशा दी जा सकती.
प्रधान ने दावा किया कि राहुल सांकृत्यायन ने जनपदीय अध्ययन में गयी लोक भाषाओं को लेकर विस्तार से उनकी शैलियों पर प्रकाश डाला है. उन्होंने यह भी कहा कि जनपदीय अध्ययन में प्रारम्भिक शिक्षा लोक भाषाओं में देने की बात की गयी. तो उच्च शिक्षा हिंदी में जनपदीय चेतना का एक रूप प्रगतिशील हिंदी कविता में देखा जा सकता है. जहां कवि अपने उपनामों के साथ लोक भाषाओं में कविता रचते थे. नागार्जुन यात्री नाम से रामविलास शर्मा 'अगिया बेताल' नाम से कविताएं लिखते थे. जनपदीय चेतना और लोक साहित्य के अन्त: सम्बन्ध को लेकर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने नये दृष्टिकोण से अध्ययन किया. हिंदी साहित्य के इतिहास में अमीर खुसरो से लेकर आधुनिक कविता तक लोक मुहावरों और  काव्य रूपों का अध्ययन करना जनपदीय चेतना का ही स्रोत है. लोकगीतों में बच्चन जी, ठाकुर प्रसाद सिंह, केदारनाथ सिंह ने जनपदीय भाषा की भूमि तैयार की. इस तरह इस विषय पर नये दृष्टिकोण से शोध करना और अध्ययन करना हिंदी साहित्य के इतिहास को नई दृष्टि प्रदान करेगा.