नई दिल्लीः उनके लेखन ने ओड़िया की एक समूची पीढ़ी को प्रभावित किया है, पर उनका मानना है कि हिंदी में प्रकाशित हुए बिना किसी भी भारतीय भाषा के लेखक की कोई गति नहीं है, चाहे वह अपनी भाषा में जितना भी महत्त्वपूर्ण लेखन कर रहा हो. हिंदी विश्व भाषा बन चुकी है और किसी भी भाषाई लेखक को अपना विस्तार पाने के लिए इसकी तरफ आना ही होगा. ओड़िया की सम्मानित लेखिका मनोरमा बिस्वाल महापात्र का यह कथन हिंदी के महत्त्व व लोकप्रियता को बताने के लिए पर्याप्त है. काव्य और कला की सारस्वत कर्मभूमि शांति निकेतन की छात्रा रहीं 
बिस्वाल  ने काव्य लेखन से सृजनकर्म की शुरुआत की. उनके काव्य संग्रहों में
'थरे खालि डाकि देले', 'स्वातीलग्न', 'एकला नईर गीत', 'जन्हरातिर मुंह,' 'शब्दर प्रतिमा', 'फाल्गुनि तिथिर झिअ', 'विश्वासर पद्मबन' आदि में उनकी अन्वेषा की तन्मयता देखी जा सकती है. उनकी कविताओं में ग्रामीण परिवेश और लोक संस्कृति के प्रति गहरा प्रेम है दिखता है. हिंदी, बांग्ला, तमिल, अंग्रेजी सहित विभिन्न भारतीय भाषाओं में उनकी कविताओं के अनुवाद हो चुके हैं.

जागरण हिंदी के पाठकों के लिए सुजाता शिवेन द्वारा हिंदी में अनूदित उनकी एक कविताः


चलो मिलकर ढूंढ्ते हैं

 

आंतकवाद से भरपूर यह पृथ्वी

ट्रेन में बम

प्लेन में बम

घर-बाहर

चारों तरफ

बम का आंतक.

आज इस ठंड़ से कंपकंपाती

सुबह

जिस नवजात ने जन्म लिया

वह आंतकवाद की

कहानी सुन-सुनकर बड़ा होगा

आंनद का संगीत सुनकर

खुश नहीं होगा.

वह तो बहुत पुराने युग की बात है

घर-बाहर

चारों तरफ

आंतकवाद का राज.

मैं आंनद ढूंढ़ रही हूं

निरीह आंनद.

कहां छिप गया है वह

ढूंढ़-ढूंढ़क थक चुकी

चलो मिलकर उसे ढूंढ़ते हैं.