नई दिल्लीः हिंदी साहित्य में शोध की परंपरा बेहद पुरातन है, और एक दौर ऐसा भी था जब इस दिशा में गहराई से काम भी हो रहा था. अभी भी इस क्षेत्र में अपार संभावना है. यह विचार वाणी डिजिटल शिक्षा श्रृंखला के इस दूसरे पड़ाव के सोलहवें व्याख्यान में 'हिंदी साहित्य में शोध की सम्भावना और चुनौतियां' विषय पर बोलते हुए आलोचक और अध्येता प्रो सुधीर प्रताप सिंह ने व्यक्त किए. हिंदी में शोध की संभावनाओं पर बातचीत करते हुए उन्होंने भारतीय चिन्तन परंपरा में शोध के अर्थ, वांगमय, शास्त्र, कविता, भाषा, टीका  की विवेचना की. इस दौरान उन्होंने शोध की संभावनाओं की तथ्य अन्वेषी प्रवृत्तियों पर भी विस्तार से प्रकाश डाला. शोध प्रविधि पर बातचीत करते हुए उन्होंने शोध टिप्पणी, संदर्भ और टीप पर अपने महत्त्वपूर्ण विचार रखे. उन्होंने कहा कि विषय चयन की दृष्टि से एक ही विषय पर अलग-अलग शोध की संभावनाएं तलाशी जा सकती हैं. जैसे कामायनी पर मुक्तिबोधरामस्वरूप चतुर्वेदी और नगेन्द्र ने काम किया था.
प्रो सिंह ने हिंदी में शोध की संभावनाओं पर बातचीत करते हुए साहित्य के समाजशास्त्र, साहित्य में अंतर अनुशासनिक संबंध, तुलनात्मक साहित्य, वर्तमान और प्राचीन साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन, लोकप्रिय साहित्य बनाम मुख्यधारा का साहित्य, साहित्य में इतिहास, राजनीति और संस्कृति के आंतरिक संबंध जैसे विषय सुझाए, और कहा कि ध्यान से तलाशे तो बहुतेरे क्षेत्र अभी शेष हैं, जिन पर काम होना चाहिए. उन्होंने हिंदी में शोध की बात करते हुए भाषा और लिपि ज्ञान को भी महत्त्वपूर्ण माना. याद रहे कि वाणी प्रकाशन की डिजिटल शिक्षा श्रृंखला के तहत काशी हिंदू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर प्रभाकर सिंह के सहयोग से यह व्याख्यानमाला कराई जा रही है. 'हिंदी साहित्य का इतिहास: अध्ययन की नयी दृष्टि, विचारधारा और विमर्श' विषय पर केंद्रीत इस व्याख्यानमाला को अकादमिक जगत और साहित्य जगत ने हाथोंहाथ लिया और हिंदी के कई महत्त्वपूर्ण लेखक, आलोचक, विद्वान, प्राचार्य अपने वक्तव्य दे रहे हैं.