प्रो. रामबचन राय

अभिमन्यु अनत मॉरिशस के यशस्वी हिन्दी लेखक थे। उन्हें भारत में भी उतनी ही लोकप्रियता हासिल है, जितनी मॉरिशस में। बल्कि उनके कथा-साहित्य का अनुवाद दुनिया की अनेक भाषाओं में हुआ है; जिससे विश्व साहित्य में भी वे एक परिचित नाम हैं। साहित्य की अनेक विधाओं- कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, यात्रा-वृतांत आदि में उन्होंने प्रचुर लेखन किया। प्रारंभ में अभिमन्यु अनत ‘शबनम’ नाम से उन्होंने कविताएं लिखी। बाद में ‘शबनम’ विलोपित हो गया। उन्हें सबसे ज्यादा ख्याति उनके उपन्यास ‘लाल पसीना’ से मिली; जिसमें भारत से मॉरिशस गये प्रवासी किसानों का जीवन-संघर्ष है। इस उपन्यास को ‘गोदान’ के समतुल्य माना जाता है। इसी अर्थ में अभिमन्यु अनत मॉरिशस के प्रेमचंद कहे जाते हैं। इसका फ्रेंच अनुवाद मॉरिशस की विदुषी लेखिका आश्लेका कालिकॉनप्रोग ने किया है। मॉरिशस प्रवास के दौरान उनसे मेरी मित्रता हो गयी थी और वापिसी के समय अभिमन्यु जी के उपन्यास ‘लाल पसीना’ की फ्रेंच प्रति उन्होंने भेंट की।

अभिमन्यु अनत ने एक श्रेष्ठ नाटककार के रूप में भी अपार यश अर्जित किया। महात्मा गाँधी के जीवन-प्रसंग पर आधारित नाटक ‘नौशेरा का यात्री’ की अनगिनत प्रस्तुतियाँ देश-विदेश में हुईं। इस नाटक की कथा-वस्तु सन् 1901 ई. में दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटते समय मॉरिशस में लगभग दो सप्ताह तक गाँधी जी के प्रवास की घटना से सम्बन्धित है। 29 अक्टूबर 1901 को गाँधी जी मॉरिशस पहुँचे थे और 15 नवंबर 1901 को भारत के लिए रवाना हुए। वे जिस समुद्री जहाज से सफर कर रहे थे उसका नाम  नौशेरा था। उसमें कुछ खराबी आ गयी थी और ईंधन भी कम हो गया था। लिहाजा उसे पोर्ट लुई बंदरगाह पर रुकना पड़ा । वहाँ के प्रवासी भारतीयों को जब मालूम हुआ कि उस जहाज से मोहनदास करमचंद गाँधी सफर कर रहे हैं तो सैकड़ो लोग मिलने आये। 9 नवंबर को उनके सम्मान में भोज आयोजित हुआ; जिसमे वहाँ के गवर्नर सर चार्ल्स ब्रूश भी उपस्थित थे। गाँधी जी ने मॉरिशस के अपने संक्षिप्त ठहराव में प्रवासी भारतीयों के बीच शिक्षा और स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता पैदा की तथा उनकी समस्याओं के संबंध में सरकार से बातचीत की। इस पूरी घटना का सजीव चित्र अभिमन्यु जी ने अपने नाटक में प्रस्तुत किया है।

अभिमन्यु अनत ने हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता को भी ऊँचाई दी। मॉरिशस के महात्मा गाँधी संस्थान में रचनात्मक-लेखन-विभाग के अध्यक्ष के रूप में काम करते हुए ‘वसंत’ नामक साहित्यिक पत्रिका का उन्होंने संपादन किया। उन्होंने अपनी एक टीम बना रखी थी जिसमें कवि पूजानन्द नेमा और कथाकार रामदेव धुरंधर जैसे उनके सहयोगी थे। इस पत्रिका के माध्यम से उन्होंने मॉरिशस में हिंदी साहित्य के विकास में अभूतपूर्व योगदान किया।

भारत सरकार की एक योजना के तहत सन् 1991 ई. में यू.जी.सी. की ओर से मुझे मॉरिशस भेजा गया था; जहाँ ढाई महीने रह कर महात्मा गाँधी संस्थान के साथ काम किया। मैं 1 नवंबर 1991 को मॉरिशस पहुँचा था। उसी दिन महात्मा गाँधी संस्थान में मॉरिशस के दिवंगत कवि सोमदत्त बखौरी  के एक कविता-संग्रह का लोकार्पण प्रधानमंत्री श्री अनिरुद्ध जगन्नाथ को करना था। समारोह में मैं भी शामिल हुआ। किन्तु कुछ अस्वस्थता के कारण अभिमन्यु अनत नहीं आये। रात में उनका फोन आया कि कल सुबह वे मुझसे मिलने आयेंगे और भोजन पर अपने घर ले जायेंगे। दूसरे दिन 2 नवंबर को सुबह 9 बजे वे कात्रोबेन स्थित माउंटव्यू होटल आये। मैं तैयार बैठा था। हमलोग उनके गाँव त्रियोले के लिए निकले। अभिमन्यु जी खुद गाड़ी ड्राइव कर रहे थे। कोई आधा घंटा/ चालीस मिनट बाद हमलोग उनके घर-संवादिता-पहुँचे। उनकी पत्नी सरिता जी इंतजार कर रही थीं। इन्दु ने पटना से उनके लिए चूड़ियाँ भेजी थी जो मैने दी। पंद्रह साल पुरानी यादें ताजा हो गयीं। उन्होंने याद दिलाया कि उस समय अभिमन्यु  जी के साथ वह पटना गयी थीं और लौटते समय भी उन्हें चूड़ियाँ दी गयी थीं- सोहाग की प्रतीक चूड़ियाँ।

जबतक भोजन तैयार होता, अभिमन्यु जी मुझे समुद्र दिखाने ले गये। मॉरिशस के गाँव भारत के गाँवों से भिन्न हैं। वे नाम मात्र से गाँव हैं; शहर की सारी सुविधाएँ वहाँ उपलब्ध हैं; यहाँ तक कि सिनेमा हॉल भी। थोड़ी देर घूमने के बाद हमलोग घर लौटे और खाना खाया। फिर अभिमन्यु जी मुझे होटल छोड़ गये।

फिर 7 नवम्बर को अभिमन्यु जी के विभाग में लेखकों के साथ साहित्यिक-विमर्श का मेरा कार्यक्रम था। अभिमन्यु जी के साथ उनके दो सहयोगी – पूजानन्द नेमा और रामदेव धुरंधर भी उपस्थित थे। चर्चा में यह बात सामने आयी कि मॉरिशस की नयी पीढ़ी में हिन्दी के बजाय फ्रेंच के प्रति रुझान बढ़ रहा है। फ्रांसीसी लोग अंग्रेजों के हाथ सत्ता सौंप कर भले वहाँ से चले गये; लेकिन फ्रेंच भाषा की सत्ता बरकरार रही और अब भारतीय मूल के सत्ताधारी भी उस विरासत को ढो रहे हैं। शायद नयी पीढ़ी के लिए अपना कैरियर सँवारने का यह रास्ता है।

1992 की जनवरी के मध्य में मुझे भारत लौटना था। एक महीना पहले पटना से इन्दु भी मॉरिशस आ गयीं थीं। तब हमारे लिए सरकार की ओर से कात्रेबेन में ही एक अलग फ्लैट उपलब्ध करा दिया गया-5 एलांग-एलांग। गृहस्थी की सारी चीजें उसमें मौजूद थीं; फ्रीज़ से लेकर चूल्हा-वर्तन तक। घर के पास ही एक छोटी पहाड़ी थी, बहुत खूबसूरत दृश्य, पेड़-पौधों से हरा-भरा। अभिमन्यु अनत की फ्रेंच अनुवादिका आश्लेका जी का घर भी उसके आस-पास था। एक रात अपने यहाँ उन्होंने हमें खाने पर बुलाया था और एक दिन हमारे यहाँ नाश्ते पर आयीं। अभिमन्यु अनत हमेशा उनके पसंदीदा लेखक बने रहे।

हमारे भारत लौटने से एक सप्ताह पहले अभिमन्यु जी ने एक योजना बनायी। वे हमें एक लोकेशन पर ले जाना चाहते थे ; जहाँ के जीवन और परिवेश पर वह भावी रचना की तैयारी कर रहे थे। सुबह से लेकर देर शाम तक का कार्यक्रम था। सुबह का नाश्ता दोपहर का भोजन फिर शाम का नाश्ता और चाय – सब अलग – अलग स्थानों पर तय था। उनके साथ सरिता जी थीं जो इन्दु की हर सुबिधा-असुबिधा का ख्याल रख रही थीं। उनके सहयोगी लेखक द्वय – पूजानन्द नेमा और रामदेव धुरंधर के अलावा एक दो लोग और भी थे। हमारे लिए अभिमन्यु जी के फोटोग्राफर रूप को देखना – जानना एक नया अनुभव था। सागर-तट से लेकर बाग-बगीचों फूलों और पत्थरों के बीच अनगिनत तस्वीरें उन्होंने अलग – अलग कोण से खीचीं। ऐसी विलक्षण फोटोग्राफी में सिर्फ अज्ञेय जी को महारत थी। उस समय की अनेक तस्वीरें हमारे पास आज भी सुरक्षित हैं।

कुछ साल पहले पटना के नेत्र – चिकित्सक डॉ. गुप्ता की पोती अभिमन्यु अनत के काव्य पर कैम्ब्रिज युनिवर्सिटी से शोध कर रही थी। कुछ जानकारी के सिलसिले में वह मेरे घर आयी थी और मुझसे कुछ किताबें भी ले गयी थी। उसका काम अब पूरा हो गया होगा। मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि भारत की साहित्य अकादेमी ने अभिमन्यु अनत की साहित्य-सेवा के लिए उन्हें सम्मानित करते हुए अपनी रत्न सदस्यता दी थी। मुझे अच्छी तरह मालूम है कि मॉरिशस के राजनीतिक, सामाजिक और साहित्यिक क्षेत्र में उनकी ऐसी प्रतिष्ठा और पकड़ थी कि वे वहाँ कब के मंत्री बन गये होते अथवा पाब्लो नेरूदा और आक्टोवियो पॉज की तरह किसी देश में मॉरिशस के राजदूत होते। लेकिन उनकी कभी कोई ऐसी चाहत नहीं रही। सिर्फ साहित्य और साहित्य के धरातल पर ही वे अपना पसीना बहाते रहे – लाल पसीना। उनकी स्मृति को शत-शत नमन।