नई दिल्लीः राजभाषा हिंदी के विकास में राजधानी दिल्ली के योगदान के मद्देनजर बनी दिल्ली की हिंदी अकादमी तकनीक, भाषा और सूचना की आधुनिकता को लेकर कितनी गंभीर है इसका अंदाज आप इसी से लगा सकते हैं कि अकादमी की वेबसाइट पर अभी भी उपाध्यक्ष के रूप में लेखिका मैत्रेयी पुष्पा का ही नाम है, जबकि दिल्ली सरकार ने 30 जून को ही उनके स्थान पर कवि एवं पत्रकार विष्णु खरे को उपाध्यक्ष नियुक्त कर चुकी है. पिछले कुछ सालों से मुंबई में रह रहे विष्णु खरे ने नियुक्ति के समय यह दावा किया था कि वह दिल्ली में रहकर अकादमी का काम देखेंगे तथा उसे चुस्त-दुरुस्त बनाने के लिए कुछ करेंगे. उन्होंने तब यह भी कहा था कि उन्हें अकादमी के उपाध्यक्ष पद के अधिकारों की भी जानकारी नहीं है, इसलिए वह अभी अकादमी की भावी रूपरेखा के बारे में कोई त्वरित टिप्पणी नहीं कर सकते, लेकिन दिल्ली के उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने जब यह पद प्रस्तावित किया तो इसलिए स्वीकार कर लिया कि वह साहित्य के लिए कुछ करना चाहते हैं और सरकारी संस्थानों को जीवंत देखना चाहते हैं.  खरे लंबे समय तक एक प्रतिष्ठित समाचार-पत्र से जुड़े रहे और उन्हें आज के दौर में डिजीटल मीडिया की ताकत का बखूबी अंदाज होगा. अभी हाल ही में हिंदी अकादमी के पुरस्कार वितरण समारोह में मंच से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को वोट न देने की अपील कर उन्होंने एक बड़े विवाद को जन्म दे दिया था. एक कवि, फिल्म समीक्षक, अनुवादक, आलोचक और पत्रकार के रूप में उन्हें बखूबी पता होगा कि किस बात को कहां किस हैसियत में कहा जाना उचित है. वह कोई आम आदमी पार्टी की बैठक नहीं थी, उस हिंदी अकादमी का कार्यक्रम था जिसके खर्चे सरकार वहन करती है. सरकारी मंचों से ऐसी बात तो खुद अकादमी की 18 सदस्यीय संचालन समिति के अध्यक्ष मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी नहीं कर सकते थे. बहरहाल अकादमी से खरे का लगाव का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि अकादमी की अपनी वेबसाइट से ही वह गायब हैं. ऐसे में हिंदी के भले के लिए क्या कर रहे होंगे समझना कोई बहुत मुश्किल नहीं. बेहतर होता कि उनका ध्यान अकादमी के गठन के मूल उद्देश्य की तरफ होता और वह अपने अनुभवों का उपयोग भाषा को मजबूत करने में लगाते सियासत में नहीं.