नई दिल्लीः सुरेन्द्र मोहन पाठक के जीवन से यह जानना वाकई दिलचस्प है कि उन्होंने अपने उपन्यासों द्वारा किस तरह पाठकों के बीच इतनी लोकप्रियता हासिल की. बीते 6 दशकों में सुरेन्द्र मोहन पाठक ने लगभग 300 से अधिक उपन्यास लिखे हैं और दूर-दराज के गांवों तक एक नया पाठक वर्ग तैयार किया. सुरेन्द्र मोहन पाठक की आत्मकथा का पहला भाग 'न कोई बैरी न कोई बेगाना' नाम से प्रकाशित हुआ था, जिसमें उन्होंने अपने बचपन से लेकर कॉलेज के दिनों के जीवन के बारे में लिखा है. उससे आगे का जीवन संघर्ष उनकी आत्मकथा के दूसरे भाग हम नहीं चंगे, बुरा न कोयमें लिखा है. इसके लोकार्पण समारोह में राजकमल प्रकाशन समूह के सम्पादकीय निदेशक सत्यानन्द निरुपम ने कहा कि हिंदी में लोकप्रिय लेखन और साहित्यिक लेखन के दो किनारे हैं, दो दुनिया है. बीच में अकादमिक जमात की आग का दरिया है. ऐसे में पाठक और पाठक के बीच की दूरी को समझा जा सकता है.
लोकार्पण कार्यक्रम बातचीत भी हुई. आलोचक विभास वर्मा ने कहा कि सुरेन्द्र मोहन पाठक को हमने बचपन में सात-आठ साल की उम्र से पढ़ना शुरू किया. इस बारे में सुरेन्द्र मोहन पाठक अपनी ख़ुशी जाहिर करते हुए कहते हैं कि हिंदी पुस्तक प्रकाशन संसार में राजकमल प्रकाशन के सर्वोच्च स्थान को कोई नकार नहीं सकता. सर्वश्रेष्ठ लेखन के प्रकाशन की राजकमल की सत्तर साल से स्थापित गौरवशाली परंपरा है. लिहाज़ा मेरे जैसे कारोबारी लेखक के लिए ये गर्व का विषय है कि अपनी आत्मकथा के माध्यम से मैं राजकमल से जुड़ रहा हूं. मेरे भी लिखने का 60वां साल अब आ गया है. यह अच्छा संयोग है. अनुवादक एवं ब्लॉगर प्रभात रंजन ने बताया कि दिल्ली विश्वविद्यालय अकेला ऐसा विश्वविद्यालय है जहां सुरेन्द्र मोहन पाठक कोर्स की किताब में पढ़ाये जाते हैं. यह पहली बार हो रहा है जब पॉकेट बुक्स का कोई लेखक मुख्यधारा के साहित्यिक प्रकाशन से जुड़ रहा है.