– डॉ सच्चिदानंद जोशी
सच ही है कहां चल दिये हम सबको यूं ही बिसूरता छोड़ कर। राग नाग ध्वनि कानड़ा की बंदिश के ये बोल'हमको बिसार कहां चले', आज आर्तनाद करते पूछ रहे हैं। इन शब्दो को जीवंत करने वाले स्वर आज एकाएक खामोश हो गए। अपने स्वरों से जीवन के हर रस की सृष्टि करने वाले 'रसराज' , गान सम्राट पंडित जसराज का यूं चला जाना समूची स्वर सृष्टि को अनाथ कर गया है। वे स्वर जो पंडित जी के इशारों पर तीनों सप्तको में उन्मुक्त होकर अपनी अटखेलियां करते थे , आज अपने उस अनोखे सर्जक को बदहवास होकर ढूंढ रहे हैं। वे सारी बंदिशें जो पंडितजी ने अपने स्वर माधुर्य से अजर अमर कर दी थी, आज शोक में विलाप कर रही हैं। खामोश हैं खमाज बहार के भँवरे , और खामोश है पुरवाई। कान्हा, राधा और मीरा के प्रेम को अभिव्यक्त करने वाले पद भी खामोश हैं। दूसरों को 'जा जा अपने मंदिरवा ' कहने वाले पंडित जी ,आज ख़ुद ही हमे स्वरहीन करके चले गए। अड़ाना में बंदिशें तो आगे भी बनेंगी लेकिन 'माता कालिका ' तो अब नही बनेगी।इसलिए तो बार बार कहने की मन होता है
“भरी नगरिया, तुम बिन सूनी
अखियां निस दिन बरस रही
लाख सलोनी या जग माही
हमहि काहे तुम छले,
हमको बिसार कहां चले”
अब तो बस आपको याद कर यही गुनगुनायेंगे “सुमिरन कर ले मेरे मना “।