नई दिल्लीः इस शनिवार दैनिक जागरण सान्निध्य ने अपनी परिचर्चा इतने ज्वलंत विषय पर रखी थी कि साहित्य अकादमी का सभागार जीवंत बहस से तप्त रहा. सान्निध्य का दूसरा सत्र 'स्त्री, धर्म और लोकाचार' पर था, जिसमें वरिष्ठ कथाकार मैत्रेयी पुष्पा, दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रोफेसर सुधा सिंह और साध्वी जया भारती ने हिस्सा लिया. इस सत्र का संचालन कथाकार सोनाली मिश्र ने किया. उनका शुरुआती सवाल था परंपरा कब कुरीति में बदल जाती है? जिसका जवाब हिंदी की चर्चित लेखिका मैत्रेयी पुष्पा ने अपने अंदाज में दिया. उनका कहना था कि स्त्री को धर्म लोकाचार के रूप में ही मिला है. यह व्रत, उपवास जो भी हैं वह सब उसके लिए. पिता के घर में वह कौमार्य की रक्षा करे और पति के घर मे, पति व्रत धर्म निभाए. दोनों ही जगह उसे डराकर धर्म की रक्षा कराई जाती है, जिसे लोकाचार कह कर इस तरह बना दिया जाता है कि उसका पति भी बाध्य हो जाए. करवा चौथ और छठ जैसे व्रत पर बाजार के प्रभाव का जिक करते हुए उनका कहना था कि उसे प्रशन पूछने का भी अधिकार नहीं तो वह अंधविश्वास और कर्मकांड से बाहर कैसे निकले. आज आलम यह है कि उसके दिमाग में समाज द्वारा धर्म ऐसे कूटकूट कर भर दिया गया है कि वह स्वयं से इनके पक्ष में तर्क गढ़ लेती है और उसे ही प्यार समझती है. उनका तर्क था कि श्रमशील जातियों में करवा चौथ नहीं होता पर टीवी से उसमें भी बुराई घुस गई है. तोहफा और दिखावा का पाखंड आ गया है. उनका तर्क था कि दीया दिखाना, आरती घुमाना धर्म नहीं है. डरा हुआ पुरुष अपने लाभ के लिए स्त्री को डराकर ये लोकाचार धर्म के नाम पर बनाता है.
दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रोफेसर सुधा सिंह का कहना था कि  'स्त्री, धर्म और लोकाचार एक बड़ा विषय है. स्त्री का अर्थ केवल दैहिक सत्ता भर नहीं है, वह मानवीय और सामाजिक सत्ता भी है. धर्म की किसी समय मनुष् के विकास में बड़ी भूमिका थी. जैसेजैसे वह जड़ होता गया उसमें रुढ़ियां शामिल होती गईं, जिससे दिक्कत हुई. धर्म अगर सत्य के पथ पर है तो ताकतवर है. जहां तक लोकाचार की बात है, यह धर्म का केवल कर्मकांडी या विकृत रूप भर नहीं है, इसमें बाजार भी शामिल है और भारत की बहुसांस्कृतिकता भी. धर्म के निर्धारण में स्त्रियों की भी भूमिका थी, पर पितृसत्तात्मक व्यवस्था से यह दिक्कत हुई. धर्म अपने कलेवर में उतना पिछड़ा नहीं है. यह सांस्कृतिक उत्सव भी है. स्त्रियों को इसमें अवसर भी हैं. हमें केवल खारिज करना ही नहीं, यह भी याद रखना होगा कि स्त्रियों को इसमें सांस लेने की भी छूट है.
साध्वी जया भारती ने कहा कि धर्म को लेकर जो भ्रांति है उसे तोड़ना जरूरी है. धर्म जड़ हो गया तो वह धर्म नहीं है. धर्म का अर्थ है धारण करना. मत बुद्धि का विषय है. धर्म चेतना का विषय है. धर्म चेतन तत्व का साक्षात्कार है. कबीर, मीरा ने इस सत्य को जाना ईश्वर अंश जीव अविनाशी. धर्म स्त्री के प्रति क्रूर नहीं है. इसमें विभेद नहीं. यह जीवात्मा की बात करता है, स्त्री-पुरुष का नहीं. हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि स्त्री प्रथा जैसी सामाजिक बुराई के खिलाफ गीता ही आधार बना था. मेरे हिसाब से परंपराएं धर्म के प्रभाव में नहीं अभाव में बनती हैं. उपवास की व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा कि संकल्प का अर्थ हमने बदला, धर्म ने नहीं. उन्होंने कहा कि प्रश्न पूछना हमारी संस्कृति का हिस्सा था, पर मुगलों के प्रभाव से हमारे यहां विभेद आया और हम अपने अतीत को जाने बगैर पश्चिम से आए फेमनिज्म से प्रभावित हो अपने धरम पर सवाल उठाते हैं. उनका दावा था कि भारतीय धर्म अर्धनारीश्वर की सोच पर आधारित है जबकि पश्चिम में स्त्री जानवर से थोड़ी ही ऊपर, पुरुष की पसली से बनी इसलिए दिक्कत है. उनका कहना था कि चेतना न हो तो आडंबर पुरुष भी अपनाता है. जिस दिन हम स्त्री-पुरुष के विभेद से अलग जीवात्मा के रूप में सबको देखेंगे, यह तर्क खत्म हो जाएगा. यह परिचर्चा और लंबा खिंचती पर समयाभाव से रुक गई. श्रोताओं ने आयोजकों ने इस विषय पर एक बड़ी बहस कराने का आग्रह किया.