नई दिल्ली :लोकप्रिय हिन्दी उपन्यासकार सुरेन्द्र मोहन पाठक  की आत्मकथा का तीसरा खंड ‘निंदक नियरे राखिए’ प्रकाशित हो गया है। राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित ‘निंदक नियरे राखिए’  में पाठक ने उन दिनों की अपनी कहानी लिखी है, जब एक लोकप्रिय उपन्यासकार के रूप में उनकी प्रसिद्धि बढ़ती जा रही थी। आत्मकथा के इस खंड में उन्होंने अपने प्रति पाठकों-प्रशंसकों के बीच बढ़ती लोकप्रियता के क़िस्से हैं, तो दूसरी तरफ प्रकाशकों से पाठक के बनते-बिगड़ते रिश्तों की बेबाक यादें भी हैं।

यह किताब हमारे समाज में एक लेखक की लोकप्रियता की गाथा भी है। यह बतलाती है कि एक लेखक कैसे अपने पाठकों के दिलों का बादशाह बन जाता है और उसके लिए पाठक का क्या और कितना महत्त्व है। सुरेन्द्र मोहन पाठक अपनी आत्मकथा के तीसरे खंड के बारे में कहते हैं, ‘निंदक नियरे राखिए एक मामूली शख़्स की मामूली ज़िंदगी को ग़ैरमामूली बनाने वाले कहानी है।

राजकमल प्रकाशन के प्रबंध निदेशक अशोक महेश्वरी ने कहा, ‘सुरेंद्र मोहन पाठक जी ने अपनी आत्मकथा की तीसरी कड़ी ‘निंदक नियरे राखिए’ में पुस्तक-लेखन, प्रकाशन और साहित्य की राजनीति पर खुलकर बात की है। असहमति हो सकती है, पर इससे बहस को जमीन मिलती है। हिंदी में पुस्तकों का दो धड़ों में बंट जाना मुझे हमेशा खटकता रहा है। इस पर बात होनी चाहिए। पाठक जी ने जो प्रश्न उठाए हैं, उनपर जरूर बात होनी चाहिए। यह हिंदी समाज के लिए अच्छा होगा।’

गम्भीर और साहित्यिक हिन्दी समाज, लेखकों और पाठकों के लिए इस आत्मकथा से गुजरना निश्चय ही एक समानान्तर संसार में जाना होगा। खास तौर पर यह जानने के लिए कि लेखन की वह प्रक्रिया कैसे चलती है जिसमें पाठक की उपस्थिति बहुत ठोस होती है।

सुरेन्द्र मोहन पाठक की आत्मकथा का पहला भाग ‘न बैरी न कोई बेगाना’ नाम से प्रकाशित हुआ था, जिसमें उन्होंने अपने बचपन से लेकर कॉलेज के दिनों के जीवन के बारे में लिखा है और दूसरे भाग ‘हम नहीं चंगे, बुरा न कोय’ में उससे आगे का जीवन संघर्ष के बारे में लिखा था।

(प्रेस विज्ञप्ति से)