–दैनिक जागरण वार्तालाप में वरिष्ठ कवयित्री गगन गिल ने रखे अपने विचार

वरिष्ठ कवयित्री गगन गिल ने कहा कि साहित्य हमें मुक्त नहीं करता। जीवन का केंद्र बदल जाता है। साहित्य में मुद्दे या विमर्श भी अस्थायी होते हैं। इनसे हित्य का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। दलित विमर्श हो, स्त्री विमर्श हो या अभिजात्य की बात हो। श्रेष्ठ और सार्वकालिक साहित्य, जो मनुष्यता के पक्ष में होगा, वही याद किया जाएगा। कबीर को पढ़ते हुए जुलाहा याद नहीं रहता। उनकी कविता याद रहती है। मुद्दे तो आते-जाते रहेंगे। हमें लगातार पढऩा चाहिए। जितना पढ़ेंगे, उतना अच्छा। उथले को गहरे से अलग करते जाएंगे। कोई क्रिटिक नहीं बताएगा, अच्छा साहित्य क्या है? इसे आप को खुद समझना होगा। यह तब होगा, जब आप गुलशन नंदा को भी पढ़ेंगे और दूसरे लेखकों को भी। कचरा न हो तो सफाई का महत्व नहीं समझ पाएंगे। और, तभी यह पता चलेगा अच्छा साहित्य क्या है? हमें विमर्श के फेर में नहीं पडऩा चाहिए। वे शनिवार को दैनिक जागरण के कार्यक्रम वार्तालाप में बोल रही थीं।

प्रार्थना की तरह लिखी गईं कविताएं
उन्होंने बात अपनी कविता से शुरू की। जानकारी दी कि चौदह साल बाद मेरी तीन किताबें प्रकाशित हो रही हैं। एक कविता ‘जब तक मैं बाहर आई और दो गद्य पुस्तकें। 14 साल का लंबा गैप। इन 14 सालों में बहुत कुछ बदला। जीवन से लेकर समाज स्तर पर। इन 14 सालों एकांत में रही हूं। समाज से एकांत में। ये कविताएं प्रार्थना की तरह लिखी गई हैं। एकांत की प्रार्थनाएं, लेकिन लेखक का एकांत नहीं होता। जीवन जटिल होता है और इसी तरह शुरू होती हैं यात्राएं…। बातचीत की यह यात्रा भी कविताओं के पाठ से शुरू हुई। गगन ने पहले तीन कविताओं का पाठ किया। एक कविता यही थी, इस तरह शुरू होती हैं यात्राएं…। कविताएं श्रोता ध्यानमग्न होकर सुन रहे थे। सुन ही नहीं रहे थे, उस भाव बोध से गुजर रहे थे, जिस भाव बोध और मनोदशा में ये पंक्तियां रची गई थीं। ईश्वर से बातचीत करती कविताएं और एक गऊ मेरे भीतर है…जिसे कटने का डर…। आजकल गायों पर बहुत बातचीत होने लगी है। जीवन की चिंता के केंद्र में गाय आ गई है। यह कविता इसी चिंता को अभिव्यक्त कर रही थी।

सबको अपनी आस्था से जीने का हक
बातचीत की इस अनोखी और आत्मीय यात्रा को कवयित्री व समीक्षक लताश्री ने आगे बढ़ाया। लेखन की शुरुआत कैसे हुई? अनुभव, समाज और जीवन की क्या भूमिका होती है?
गगनजी धीरे-धीरे बोल रही थीं। इस धीरे-धीरे में चौदह साल की यात्रा भी झांक रही थी। वह एकांत भी मुखर हो रहा था-समाज में घट रही घटनाओं से बचा नहीं जा सकता। अलग-अलग असर करती हैं। 30 साल पहले की कविता और आज की कविता में बेशक अंतर होगा। उस समय नितांत युवा लड़की थी। तब, संभलकर चलना होता था। तब से संभले-संभले और अब फिर लगा कि अब बेटियां संभल-संभलकर चलती है। 84 का दंगा, उस समय की राजनीति सामाजिक तौर पर प्रभावित किया। अपने एकांत के लिए खूब बाते कीं। आज समय बदल गया है। आज का यह समय सेकुलरों के लिए ही मुश्किल नहीं, अपनी आस्था, परंपरा के साथ जो जीना चाहते हैं, उनके लिए भी यह कम मुश्किल भरा समय नहीं है। हमारी सभ्यता ऐसी रही है कि उसने कभी किसी को बांधने का काम नहीं किया। सबको अपनी-अपनी आस्था के साथ जीने का हक दिया और लोग जिए भी और इस संस्कृति में अपना कुछ जोड़े भी। यही हमारी सभ्यता की विशेषता है।

पढ़ते हुए पैदा हुई
हर पाठक की यह जिज्ञासा होती है कि किस उम्र में लिखना शुरू किया, लताश्री ने सबकी ओर से यही सवाल पूछा। गगनजी ने उसका जवाब भी रोचक दिया-पढ़ते हुए पैदा हुई। कहानी सुनते हुए पैदा हुई। अभिमन्यु की कहानी झूठी नहीं। माता-पिता वैदिक शास्त्र के
पंडित थे। किताबों की कमी नहीं थी। आज का जमाना नहीं था। उस समय किताबों के लिए बहुत गुंजाइश थी। सो, पढऩे के साथ लिखने का क्रम भी चलने लगा। बचपन में भी खूब पढ़ी। लोक कथाएं, शेक्सपीयर के नाटक आदि। पिता ने बचपन में गुरुमुखी सिखाई थी। एक रात आधी कहानी पिता ने सुनाई और कहा, शेष अगले दिन। मैंने सुन रखा था कि आधी कहानी सुनने पर चुड़ैल पकड़ लेती है। सो, उस रात गुरुमुखी को फेर-फेर उस कहानी को पूरी की। इस तरह पढऩा और लिखना शुरू हुआ।

कविता समय की मोहताज नहीं
कविता और समाज के रिश्तों पर कहा कि कविता अपने होने की विडंबना हो समझना है। केदारनाथ की कविता बेचैन करती है। कविता का समय, समाज के समय से अलग की चीज है। कविता की राजनीति, समाज की राजनीति से अलग चीज है। कविता सिर्फ वर्तमान तक सीमित नहीं होती। उसे समय में बांधा नहीं जा सकता।

तिब्बत में नालंदा की परंपरा सुरक्षित
गगन ने तिब्बत से लेकर मानसरोवर और विदेशों की खूब यात्राएं कीं। एक सवाल तिब्बत और बौद्धधर्म से जुड़ा था। गगन गिल ने बताया, 2007 में तिब्बत गई। काफी लंबा समय हो गया। बौद्ध साहित्य पढ़ते हुए वहां जाने की इच्छा थी। गया तो वहीं समझ में आया कि तिब्बत में ही नालंदा की परंपरा सुरक्षित है। वैसे तो चीन, जापान और थाइलैंड में भी बौद्ध धर्म हैं, लेकिन सब स्थानीय रंग में रंग गए। तिब्बत में ही नालंदा की महायान परंपरा सुरक्षित है। लेकिन अब तो स्थिति भी बदल गई। तिब्बत का स्वप्न भी स्थायी नहीं रह गया। देशों की राजनीतिक सीमाएं हमेशा बदलती रही हैं। सवालों का सिलसिला जारी रहा। श्रोताओं की ओर से भी सवाल आए। छंद की परंपरा की बात भी आई। पंजाबियत की चर्चा की, जहां कविताएं गेय होती हैं। वहां संगीत की भाषा है।

ङ्क्षहदी के प्रति गर्व हो
एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि ङ्क्षहदी के प्रति हमारे अंदर गर्व और स्वाभिमान होना चाहिए। मेरा गर्व और मेरा स्वाभिमान कोई दूसरा नहीं दे सकता। हमें अपनी भाषा के प्रति प्यार होना चाहिए। यही हमारी पहचान हैं। मारीशस जो लोग यहां से गए, वे रामचरित मानस लेकर गए और वहां वे प्रताडऩा के बावजूद छुप-छुपकर उसे पढ़ते रहे। यह भाव क्या हमारे अंदर अपनी भाषा को लेकर है? अंग्रेजी पढ़ें, लेकिन लेकिन उसे पैर की जूती बनाकर रखें। सिर पर न चढ़ाएं। मैं खुद अंग्रेजी में पढ़ाई की। इस भाषा में दुनिया का साहित्य पढ़ा और अपने देश के बारे में भी इस भाषा में उपलब्ध साहित्य को पढ़कर जाना। पर, पढऩा अलग बात है। हमें पहले अपने घर में ही भाषा को सम्मान देना चाहिए।