अरुण होता एक उम्दा प्राध्यापक और आलोचक तो हैं ही, एक अच्छे लेखक भी. उनकी एक किताब आई है, 'भूमंडलीकरण, बाजार और समकालीन कहानी'. इस पुस्तक में आलोचक अरुण होता अपनी मूल चिंताओं के साथ उपस्थित हुए हैं. इसमें भूमंडलीकरण, निजीकरण, मुक्त व्यापार, विश्व व्यापार संगठन, बाजारवाद, पूंजीवाद, सांप्रदायिकता आदि समस्याओं पर गंभीरता से विचार किया गया है. फेसबुक पर कई साहित्यकारों ने किताब पर खासी टिप्पणियां की हैं और यह उम्मीद जताई है कि यह किताब कहानी के वर्तमान परिदृश्य को समझने-जानने में बहुत सहायक सिद्ध होगी. 1990 के बाद के बदलते परिदृश्य और मूल्यबोध को इस पुस्तक में बारीकी से रेखांकित किया गया है. इस पुस्तक में सुधा अरोड़ा, शिवमूर्ति, विश्वेश्वर, असगर वजाहत, भालचंद्र जोशी, पंकज मित्र, संजय कुंदन, हरि ओम, गीता श्री, सत्य नारायण पटेल, अनंत कुमार, किरण सिंह, अनुज, उमा शंकर चौधरी, ज्योति चावला, प्रज्ञा आदि कहानीकारों के लेखन कौशल की जमीन की तलाश की गई है. इसके अलावा इसमें जैनेन्द्र की 'जाह्नवी', अज्ञेय की 'रोज' कहानियों का मूल्यांकन किया गया है. इसमें रेणु तथा भीष्म साहनी भी मौजूद हैं.


इस पुस्तक में युवा स्वरों के अतिरिक्त साल 2015 में कहानी की दुनिया में हस्तक्षेप करने वाले कहानीकारों की कथा भूमि की पड़ताल भी की गई है. जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, पुस्तक 'भूमंडलीकरण, बाजार और समकालीन कहानी' के एक आलेख में बाजार और साहित्य पर बात की गई है. अरुण होता अपने विचारों को कभी छिपाते नहीं हैं, पहले भी उन्होंने अपने कई लेखों में लिखा था, "भूमंडलीकरण, उदारीकरण, बाजारवाद और उपभोक्तावाद का मौजूदा दौर आज के भारत की विशेषता है। यह एक ऐसा दौर है जहाँ सेन्सेक्स का आँकड़ा बीस हजार पार कर जाता है और दूसरी ओर आम आदमी की तकलीफों का सूचकांक तेजी से बढ़ता रहता है. आम आदमी अधिकाधिक समस्याओं से जूझता रहता है. इतना ही नहीं मानव मूल्यों के टूटन और विघटन चिंता के विषय बने हुए हैं. जीवन के सभी क्षेत्रों में व्यापक उथल-पुथल मचे हैं. परिवार, समाज, राजनीति इत्यादि सभी जगह मूल्यों का पतन हो रहा है. यह चिंताजनक है. अपसंस्कृति का विस्तार हो रहा है. बाजारवादी अर्थव्यवस्था का प्रभाव बढ़ रहा है. भूमंडलीकरण और भौतिकवादी जीवन शैली हमारे पारंपरिक अर्जित मूल्यों को तहस-नहस करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं." यह पुस्तक उनकी इसी सोच का विस्तार है. इस पुस्तक में लेखक ने बाजार के दुष्परिणाम को दिखाने के लिए तथा अपनी बातों को प्रमाणित करने के लिए कुछ कविताओं का भी सहारा लिया है. पुस्तक के एक आलेख में अलग से स्त्री कथाकारों पर बात की गई है. पुस्तक का अंतिम आलेख 'हिन्दी कहानी और किसान जीवन' है. यह आलेख हमें कई सत्यों से अवगत कराता है. इस पुस्तक को नेशनल पब्लिशिंग हाउस, जयपुर ने प्रकाशित किया है.