नई दिल्लीः वाणी प्रकाशन ने अपने कार्यालय स्थित प्रेमचंद सभागार में 'साहित्य और सियासत: पार्टनर तुम्हारी पॉलिटक्स क्या है?' विषय पर एक परिचर्चा का आयोजन किया, जिसमें विवेक मिश्र, वंदना राग, अजीत भारती और अणुशक्ति सिंह ने अपने विचार रखे. विवेक मिश्र का कहना था हमारा लेखन ही हमारी पॉलिटक्स है. साहित्य हमेशा वैकल्पिक राजनीति होती थी पर हम पॉलिटिकल टूल बन कर रह गए हैं. लिखने वाले ख़ुद सत्ता केंद्र में तब्दील हो गए हैं. लेखक का कार्य सत्ता के अच्छे काम का विज्ञापन नहीं है, उसे आम जनों के सरोकारों से मतलब है जो शोषित है. मैं एक लिबरल डेमोक्रेट की तरह सोचता हूं, मैं एक्स्ट्रीम लेफ़्ट या एक्स्ट्रीम राइट होकर नहीं सोचता. अजीत भारती का कहना था कि साहित्यकार का राजनीतिक विषयों पर बोलना ज़रूरी है, जो बहुत कम हो रहा है. पाले पकड़ना बुरा नहीं, स्वाभाविक है. विचारधारा रखना बुरा नहीं, कुतर्क करना ज़रूर बुरा है. साहित्यकारों को निष्पक्ष होकर ऐसे मुद्दों पर आवाज़ उठानी चाहिए जिनमें जनता की आवाज़ हो.
कथाकार वंदना राग ने कहा कि साहित्य हमेशा प्रतिपक्ष रचने के लिए होता है. नागार्जुन, धूमिल, दिनकर जैसे पुराने लेखकों ने खुल कर सत्ता के विपक्ष में लिखा. उन्होंने कहा कि मैं उस हिंदूवाद की समर्थक कैसे हो सकती हूं जो एक सर्वोच्च सत्ता को महान बना कर प्रजातांत्रिक ढांचे को तोड़ दे, हाशिये की बात नहीं करे. किसी भी राजनीतिक दल ने महिलाओं को इस बार समुचित नेतृत्व नहीं दिया. व्यक्तिपूजा के इस दौर में हम क्यों नहीं ये मुद्दे सोशल मीडिया पर उठाते. अणुशक्ति सिंह ने कहा कि साहित्य और सियासत, यह मुद्दा जैसे ही सामने आता है, मुझे याद आती है देश के प्रथम प्रधानमंत्री द्वारा लिखी गयी राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की किताब 'संस्कृति के चार अध्याय' की प्रस्तावना. मुझे लगता है कि लेखक को मध्य मार्ग पर होना चाहिए. उसे हर तरफ़ की ग़लत बात रखनी चाहिए. वाम या दक्षिण अपने मन के खिलाफ जाते ही दोनों तरफ से चरित्र हनन शुरू हो जाते हैं. कार्यक्रम में वरिष्ठ रचनाकार विनोद भारद्वाज, पत्रकार संजीव, युवा रचनाकार धर्यकांत मिश्रा, मनीष, हंसराज, फ़ज़ल हक़, संजीव सिन्हा, अंकुश कुमार आदि उपस्थित थे.