नई दिल्लीः साहित्य अकादेमी के साहित्योत्सव 2022 में प्रख्यात संस्कृत विद्वान, दार्शनिक एवं आध्यात्मिक गुरु जगद्गुरु रामानंदाचार्य स्वामी रामभद्राचार्य को साहित्य अकादेमी के सर्वोच्च सम्मान-महत्तर सदस्यता से सम्मानित किया गया. स्वामी जी के साथ संवाद सत्र के अंतर्गत साहित्य अकादेमी के संस्कृत परामर्श मंडल के संयोजक अभिराज राजेंद्र मिश्र, रमाकांत शुक्ल एवं रामसलाही द्विवेदी ने संवाद किया. साहित्योत्सव के चौथे दिन तीन दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का शुभारंभ भी हुआ, जो 'भारतीय स्वतंत्रता संग्राम पर साहित्य का प्रभाव' विषय पर केंद्रित है. संगोष्ठी का उद्घाटन वक्तव्य देते हुए प्रख्यात हिंदी कवि, समालोचक एवं अकादेमी के महत्तर सदस्य विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने कहा कि स्वाधीनता मानवीय शब्दकोश का सबसे पवित्र शब्द है. उसकी चेतना, मनुष्य ही नहीं जीव मात्र में नैसर्गिक रूप से विद्यमान होती है. वह मनुष्य का चरम मूल्य है. तिवारी ने कहा कि दुनिया भर के मनुष्य ने 'स्वाधीनता' के लिए जितने बलिदान दिए हैं, शायद ही किसी अन्य मूल्य के लिए दिए हों. स्वाधीनता ही साहित्य का भी आधार और स्वप्न है. दुनिया का अधिकांश साहित्य उसी की अभिव्यक्ति है. आगे उन्होंने कहा कि राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन के साथ-साथ जो साहित्य लिखा जा रहा था, वह अधिकांशतः उससे प्रभावित भी था और उसे प्रभावित भी कर रहा था. तिवारी का कहना था कि हिंदी में जिसे छायावाद काल कहा जाता है उसे 'सत्याग्रह युग' भी कहा गया है. उन्होंने कहा कि हिंदी ही नहीं, उस समय का संपूर्ण भारतीय साहित्य स्वाधीनता की चेतना से आंदोलित था और उसे प्रेरित तथा गतिशील कर रहा था.
संगोष्ठी में बीज वक्तव्य में प्रख्यात अंग्रेजी लेखक हरीश त्रिवेदी ने कहा कि स्वतंत्रता संग्राम पर साहित्य का प्रभाव व्यक्तिगत, अन्तरंग किंतु सूक्ष्म और स्थायी था. उस समय के राजनीतिज्ञ जो लिख रहे थे वह सृजनात्मक साहित्य तो नहीं था लेकिन उसका प्रभाव किसी कविता या कहानी से कम प्रभावित करने वाला नहीं था और उस समय उसकी ज़्यादा ज़रूरत थी. साहित्य अकादेमी के अध्यक्ष चंद्रशेखर कंबार ने अपने वक्तव्य में कहा कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का आंदोलन पूरी दुनिया से अलग और अनोखा था क्योंकि इसमें कोई सेना शामिल नहीं थी बल्कि यहाँ की आम जनता और साधू संतों से लेकर सभी शामिल थे. उन्होंने वाचिक साहित्य द्वारा अपनी बात दूर-दूर तक पहुंचाई और साहित्यकारों ने अपनी वाणी से इस आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए अपने शब्दों से प्रेरित किया. साहित्य अकादेमी के उपाध्यक्ष माधव कौशिक ने कहा कि लेखकों का काम देश को आजादी दिलाने के बाद भी खत्म नहीं हुआ बल्कि अब परिदृश्य और जटिल हुआ है तथा लेखकों को ज़्यादा संघर्ष करने की ज़रूरत है. आज संगोष्ठी में तीन अन्य सत्र नंदकिशोर आचार्य, दामोदर मावज़ो और चंद्रकांत पाटिल की अध्यक्षता में संपन्न हुए. इसी दिन अपराह्न 2.30 बजे 1947 के बाद 'भारतीय भाषाओं में फैंटेसी और साइंस फिक्शन लेखन' विषयक परिसंवाद का आयोजन हुआ, जिसमें देवेंद्र मेवाड़ी ने उद्घाटन वक्तव्य देते हुए कहा कि आज साहित्य एवं विज्ञान नज़दीक आ रहे हैं. आगामी समय विज्ञान-साहित्य का होगा. उन्होंने कहा कि आज़ादी के बाद से फैंटेसी और विज्ञान कथा-साहित्य बहुत तेज़ी से लिखा जा रहा है. साहित्य की मूल धारा के लेखकों ने भी विज्ञान कथा-साहित्य का लेखन किया है. परिसंवाद के विचार सत्र की अध्यक्षता कश्मीरी लेखक ज़मां आज़ुर्दा ने की तथा रजत चौधुरी (अंग्रेजी), जोसेफ तुसकानो (मराठी), कमलाकांत जेना (ओड़िआ), जर्नादन हेगडे (संस्कृत) और इरा. नटरासन (तमिऴ) ने अपने आलेख प्रस्तुत किए.