सशक्त कथा शिल्पी के रूप में हिंदी साहित्य और कलामंच पर अपनी अलग पहचान बनाने वाले रचनाकार कामतानाथ जन्म 22 सितंबर, 1934 में उत्तर प्रदेश के लखनऊ में हुआ था. उनके लेखन की विशेषता थी कि उन्होंने समकालीन कथाकारों से पृथक मंच पर अपनी कथाओं का सृजन किया, जिसमें वर्गीय चेतना और क्रांतिकारी प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है. साहित्य जगत में कामतानाथ 50 साल से भी अधिक समय तक सक्रिय रहे. साहित्य के साथ ही कामतानाथ रंगमंच पर भी काफी लोकप्रिय थे. उनकी रचनाएं मंचन के काफी उपयुक्त मानी जाती रहीं, इसकी एक वजह यह भी थी कि उन्हें रंगमंच की गहरी समझ थी. उनकी लगभग सभी रचनाएं संवाद प्रधान रहीं. वह मानते थे कि कहानियों, उपन्यासों को वर्णात्मक होने की जगह संवाद प्रधान होनी चाहिए. पात्रों का चरित्र इस माध्यम से अधिक सशक्त ढंग से अभिव्यक्त होता हैं. साल 1961 में उनकी पहली कहानी आयी थी. उसके बाद उनके लगभग 6 उपन्यास, 11 कहानी संग्रह और 8 नाटक प्रकाशित हुए, जिनमें 'समुद्र तट पर खुलने वाली खिड़की', 'सुबह होने तक', 'एक और हिंदुस्तान', 'तुम्हारे नाम', 'काल-कथा- दो खंड', 'पिघलेगी बर्फ', 'छुट्टियां', 'तीसरी सांस', 'सब ठीक हो जाएगा', 'शिकस्त', 'रिश्ते-नाते', 'आकाश से झांकता वह चेहरा', 'सोवियत संघ का पतन क्यों हुआ', 'लाख की चुड़ियां' 'रेल चली- रेल चली', 'कामतानाथ संकलित कहानियां', 'कामतानाथ की श्रेष्ठ कहानियां', 'मेरी प्रिय कहानियां' उल्लेखनीय हैं. उन्होंने 'दिशाहीन', 'फूलन', 'कल्पतरु की छाया', 'दाखला डॉट काम', 'संक्रमण'; एकांकी 'वार्ड नं एक'; प्रहसन 'भारत भाग्य विधाता' और गाइ द मोपांसा की कहानियों पर आधारित नाटक 'औरतें' के नाम से लिखीं. उन्होंने  हेनरिक इब्सन की किताब घोस्ट का 'प्रेत' के नाम से अनुवाद भी किया.

कामतानाथ ने यथार्थ के अंतर्विरोधों को समझकर उन्हें रचनाओं के सांचे में ढाला और पाठकों के बीच लोकप्रियता हासिल की. उनकी कहानियों में कथा-रस का जादू पाठकों के सिर चढ़कर बोलता था. कामतानाथ कानपुर में अभिव्यक्ति संस्था के संरक्षक थे. उन्हें पहल सम्मान’, ‘मुक्तिबोध पुरस्कार’, ‘यशपाल पुरस्कार’, ‘साहित्य भूषणऔर महात्मा गांधी सम्मान' से नवाजा गया था. आज के साहित्य को डिजाइनर साहित्य मानने वाले कामता नाथ ने अपने 75वें जन्मदिवस पर फिल्म अभिनेता नसीरुद्दीन शाह से बातचीत में कहा था कि लेखकों में पहले भी मतभेद होते थे, वाद विवाद होते थे, लेकिन आज जैसी कटुता नहीं थी, एक दूसरे को ऊपर नीचे करने की आज जैसी राजनीति नहीं थी. जैनेंद्र, इलाचन्द जोशी, अज्ञेय जैसे कथाकार मनोवैज्ञानिक कहानियां लिखते थे, दूसरी ओर प्रेमचंद, यशपाल जैसे कथाकार थे लेकिन शिल्प के महत्त्व के बावजूद ऐसा नहीं होता था कि कथ्य का लोप ही हो जाए. लेखन जमीन से जुड़ा हुआ था.वह कहते थे कि आजकल जीवन में जिस तरह सब कुछ डिजाइनर होता जा रहा है, डिजाइनर फैशन की तरह साहित्य भी डिजाइनर हो गया है. उनका मानना था कि आजकल कोई आंदोलन नहीं है, इसीलिए लेखन में भी विचार नहीं हैं.