नई दिल्ली: साहित्य अकादेमी ने ‘राष्ट्रीय एकता दिवस’ के अवसर पर नई दिल्ली के अपने  सभाकक्ष में ‘साहित्य में भारतीयता की अवधारणा’ विषयक परिसंवाद का आयोजन किया, जिसकी अध्यक्षता प्रो. इंद्रनाथ चौधुरी ने की. अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में प्रो. इंद्रनाथ चौधुरी ने कहा कि लोक और शास्त्र एक-दूसरे के पूरक हैं तथा भारतीय संस्कृति के दो स्तंभ हैं. परंपरा, विरासत, विविधता, समुदायवाद, मानवतावाद, मानवाधिकार और मानव-मर्यादा के अनेक दृष्टांत प्रस्तुत करते हुए उन्होंने कहा कि इनके माध्यम से ही हम भारतीयता की अवधारणा और संकल्पना कर सकते हैं. साहित्य अकादेमी के सचिव डाॅ. के. श्रीनिवासराव ने वक्ताओं और अतिथियों क़ाआ औपचारिक स्वागत करते हुए कहा कि भारत की विभिन्न भाषाओं, जिनमें वाचिक परंपरा की सैकड़ों भाषाएं भी शामिल हैं, में प्राप्त और लिखित साहित्य की संवेदना का एकसूत्रता ही साहित्य में निहित भारतीयता को प्रतिबिंबित करता है.

असग़र वजाहत ने कहा कि विविधता में एकता और समन्वित संस्कृति की स्वीकार्यता ही भारतीयता का प्रमुख लक्षण है. अमीर खुसरो और अन्य लेखकों का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि यह हमें भारतीय साहित्य के विकास-क्रम में निरंतर दिखाई देता है. डाॅ. रीतारानी पालीवाल ने हिंदी साहित्य की विकास-यात्रा में भारतीयता की चेतना, इसके अर्थ और इसकी अभिव्यक्ति के स्वरूप को रेखांकित करते हुए अपनी बात रखी. डाॅ.जयप्रकाश कर्दम ने कहा कि हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय समाज में वैविध्य तो है, लेकिन विभाजन भी है. दलित और स्त्रियों को उपेक्षित करके हम खंडित भारतीयता ही स्थापित करते हैं, जिसके निराकरण की आवश्यकता है. डाॅ. आईवी इमोजिन हांसदा ने कहा कि भारतीय साहित्य की प्रचलित अवधारणा में आदिवासी संस्कृति और उनके वाचिक साहित्य की भी भरपूर उपेक्षा हुई है, जिसके बिना भारतीयता की परिभाषा अधूरी है. उन्होंने आदिवासी भाषाओं में प्रचलित रामायण और महाभारत के प्रदर्शनकारी पाठों का उदाहरण देते हुए कहा कि इन्हें मानक ग्रंथों के उप-पाठ के रूप में नहीं, वरन पूर्व-पाठ के रूप में समझा जाना चाहिए. अकादेमी के विशेष कार्याधिकारी डाॅ. देवेंद्र कुमार देवेश के औपचारिक धन्यवाद ज्ञापन के साथ कार्यक्रम संपन्न हुआ, जिसमें बड़ी संख्या में विभिन्न भारतीय भाषाओं के विद्वानों एवं साहित्य-प्रेमियों ने अपनी भागीदारी की.