जागरण संवाददाता: स्वाधीनता के बाद देश की राजनीति ने बहुत उतार–चढ़ाव देखे हैं। जोड़-तोड़ की राजनीति का दौर भी देखा है। स्वतंत्र भारत के सभी प्रधानमंत्रियों के बारे में और उनके दौर की राजनीति के बारे में समग्र जानकारी पाठकों तक पहुंचाने के उद्देश्य से पुस्तक लिखी है। ये कहना था लेखक और स्तंभकार रशीद किदवई का जो अपनी नई पुस्तक ‘भारत के प्रधानमंत्री’ पर जागरण वार्तालाप में संवाद कर रहे थे। रशीद किदवई अंग्रेजी में लिखते रहे हैं लेकिन उन्होंने ये माना कि ज्यादा पाठकों तक अपनी बात पहुंचाने के उद्देश्य से उन्होंने हिंदी में ये पुस्तक लिखी। रशीद किदवई का कहना है कि राजनीति एक बेहद पेचीदा मसला है और इस विषय पर हर किसी की अपनी राय होती है लेकिन नेताओं का मूल्यांकन सिर्फ भावनाओं के आधार पर नहीं होना चाहिए। पहले आम चुनाव की चर्चा के दौरान उन्होंने बताया कि 1952 में ये नारा दिया गया था कि ‘नेहरू को वोट देकर कांग्रेस को मजबूत करें’। इस नारे को वो व्यक्तिवाद से जोड़कर देखते हैं। उनका मानना है कि अगर व्यक्तिवाद नहीं होता तो नारा होता कि ‘कांग्रेस को वोट देकर नेहरू को मजबूत कीजिए’। इस उदाहरण के साथ उन्होंने जोड़ा कि व्यक्तिवाद पहले चुनाव से इस देश की राजनीति में रहा है, कोई नई बात नहीं है।
नेहरू को जिनसे पहली चुनौती मिली थी उन्होंने गोवध को बड़ा मुद्दा बनाया था। उसके बाद भी जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं तो गोवध पर दिल्ली में एक बहुत बड़ा प्रदर्शन हुआ था। इसके अलावा भी कई ऐसे विषय़ हैं जो पहले घटित हो चुके हैं। ऐसा नहीं है कि बहुत सारे विषय 2014 के बाद ही देश का सामने आए। इसके अलावा रशीद किदवई ने कई दिलचस्प प्रसंगों की भी चर्चा की। रशीद किदवई के मुताबिक हर कोई प्रधानमंत्री बनना चाहता है। उन्होंने इस मसले पर लाल बहादुर शास्त्री से जुड़ी एक बात साझा की। कुलदीप नैयर की पुस्तक के हवाले से उन्होंने बताया कि शास्त्री जी ने कहा था कि ‘मैं नेहरू भक्त हूं इसका ये मतलब नहीं कि मैं उनकी बेटी के लिए त्याग कर दूं’। ये दिखाता है कि सभी नेता हाड़ मांस के बने होते हैं और उनकी भी आकांक्षाएं होती हैं और एक लेखक के तौर पर वो इन सबको जनता के सामने लाना चाहते थे। शास्त्री जी को रशीद किदवई नेहरू का नैसर्गिक उत्तराधिकारी मानते हैं। उनका मानना है कि शास्त्री जी की कांग्रेस के भीतर स्वीकार्यता अधिक थी। मोरारजी देसाई थोड़े अक्खड़ स्वभाव के थे जबकि शास्त्री जी बहुत मिलनसार थे। उनका मानना है कि व्हाट्सएप के दौर में इस वक्त देश में कई तरह की भ्रांतियां हैं। अगर इस वक्त देश में दो प्रमुख विचारधारा को मानें तो तो दोनों विचारधारा के लोग ऐसा करते हैं कि एक तारीफ करता है तो दूसरा नीचा दिखाना चाहता है। उनका मानना है कि लेखक का भी अपना एक सोच होता है, वो लाख तटस्थता के दावे करे पर उसका एक नजरिया तो होता ही है। राजनीति में भी बहुत से मत और विचार होते हैं लेकिन लोकतंत्र की ताकत संवाद में होती है। जागरण वार्तालाप का ये मंच भी संवाद का मंच है और ये संवाद भी किसी न किसी तरह लोकतंत्र को मजबूत ही कर रहा है।
जवाहरलाल नेहरू और राजीव गांधी के दौर में हुए घोटालों को रशीद किदवई अलग अलग तरीके से देखते हैं। उनका मानना है कि नेहरू के दौर में जब घोटाले हुए तो प्रधानमंत्री के तौर पर उनका रेस्पांस अलग था और राजीव गांधी का घोटालों को लेकर रेस्पांस अलग था। नेहरू ने तत्काल उस मंत्री को हटा दिया था जिसपर आरोप लगे थे लेकिन राजीव ऐसा नहीं कर पाए थे। वी पी सिंह के दौर में वामपंथी और दक्षिणपंथी दलों के साथ आने को वो विपक्ष की व्याकुलता से जोड़ते हैं। रशीद किदवई का मानना है कि उस समय पूरा विपक्ष किसी भी कीमत पर राजीव गांधी को रोकना चाहता था इसलिए दोनों साथ आ गए थे। उन्होंने कहा कि जैसे आज विपक्ष नरेन्द्र मोदी को रोकने के लिए व्याकुल दिखता है। इस संदर्भ में उन्होंने समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के साथ आने का उदाहरण दिया। पी वी नरसिंहाराव का व्यक्तित्व बहुत बड़ा था, उनका बहुत सम्मान भी था लेकिन अपने ही दल में सम्नान नहीं मिल पाने की वजह से इतिहास में उनको वो जगह नहीं मिल पाई जिसके वो हकदार थे। उनका मानना है कि चंद्रशेखर, पी वी नरसिंहराव और अटल बिहारी वाजपेयी तीनों ऐसे राजनेता थे जो अपने समय को और अपने देश के मिजाज को समझते थे। उनका मानना है कि चंद्रशेखर को बहुत कम समय मिला। अटल जी को उन्होंने कद्दावर नेता कहा।
अपनी चर्चा में उन्होंने सभी प्रधानमंत्रियों के बारे में अपनी राय रखी। मौजूदा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को उन्होंने विषम परिस्थियों को अपने हित में उपयोग कर लेनेवाला प्रधानमंत्री बताया। उनके मुताबिक मोदी ने कई ऐसे काम किए जिनकी सफलता के बारे में उनके कई समर्थकों को संदेह था। लेकिन विषम परिस्थियों में भी उनको कामयाबी मिली। उनका मानना है कि नरेन्द्र मोदी की इंदिरा गांधी से तुलना करना गलत है, अगर उनकी तुलना हो सकती है तो वो जवाहरलाल नेहरू से हो सकती है। नेहरू में भी विषम परिस्थियों में देश का मन अपने हित में बनाने की कोशिश करते थे। रशीद किदवई से बातचीत दैनिक जागरण के अनंत विजय ने की। दैनिक जागरण का अपनी भाषा हिंदी को समृद्ध करने का उपक्रम है ‘हिंदी हैं हम’। इसी के अंतर्गत ‘जागरण वार्तालाप’ में हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के लेखकों से संवाद किया जाता है।