गोरखपुर: गोरखपुर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग एवं साहित्य अकादमी नई दिल्ली के तत्वाधान में भक्ति साहित्य पर आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी के दूसरे दिन भी संवाद भवन में अकादमिक गतिविधियों की भरमार रही. संगोष्ठी में कुल पांच सत्र हुए. समापन वक्तव्य सिद्धार्थ विश्वविद्यालय सिद्धार्थ नगर के कुलपति प्रोफेसर सुरेंद्र दुबे ने दिया. उन्होंने कहा कि भक्ति आंदोलन देशव्यापी धार्मिक-सांस्कृतिक आंदोलन था. इसने पीड़ित जनता को संबल प्रदान किया तथा जाति के बंधन को तोड़ने का काम किया. आराधना का सर्वोत्तम स्वरूप भक्ति है. भक्ति काल की कविता में जीवन का यथार्थ दिखता है. सभी मनुष्यों को बराबर की दृष्टि से देखना इस कविता की खास प्रवृत्ति है. 'भक्ति साहित्य शोध की नई दिशाएं' विषय पर कुल 29 शोध पत्र आए और 12 शोध पत्रों का वाचन छात्र-छात्राओं ने किया. इस सत्र का संयोजन हिंदी विभाग के डॉ नागेश राम त्रिपाठी ने किया. 'भक्ति साहित्य: वैकल्पिक समाज का स्वप्न' विषय पर प्रो चितरंजन मिश्र ने कहा कि रचना हमेशा एक वैकल्पिक समाज रचने के लिए होती है. कवि को दूसरा ब्रह्मा कहा जाता है. रचना का काम है व्यवस्था पर सवाल उठाना और नई व्यवस्था बनाने का काम करना. उन्होंने कहा कि नैतिक आक्रोश सभी भक्त कवियों में था. तुलसीदास की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि तुलसी उस समाज की बात करते हैं जहां विषमता न हो. राम उस आदर्श के राजा हैं जिसमें विषमता समाप्त हो जाती है. डॉ मनोज कुमार सिंह ने कहा कि भक्ति काव्य प्रेम की कविता है. भक्ति काव्य धर्म और जाति को तोड़ता है. आज के समय में दोनों ताकतें ताकतवर हो गई हैं. इसे तोड़ना अनिवार्य है. प्रेम सामंती ढांचे को तोड़ता है. रैदास व कबीर दोनों कवि वैकल्पिक समाज की मांग करते हैं. उन्होंने कहा कि ईश्वर प्रतिमान नहीं है, प्रतिमेय है.
डॉक्टर पंकज चतुर्वेदी ने कहा कि निर्गुण अमूर्तन है, सपना है, जबकि सगुण अमूर्तन को मूर्त करने की चेष्टा है. तुलसी की कविता जहां रामराज्य का मॉडल देती है वहीं कबीर की कविता हमें दूसरी दुनिया में पहुंचाती है. कबीर के समाज और आज के समाज की हमें तुलना करनी होगी, विचार करना होगा. संगोष्ठी के अंतिम और पांचवें सत्र 'भक्ति साहित्य समकालीन पाठ' विषय पर बोलते हुए काशी हिंदू विश्वविद्यालय के आचार्य प्रोफेसर अवधेश प्रधान ने कहा कि भक्ति काव्य एक ऐसी दुनिया में ले जाता है जो मानता है कि यहां सत्ताओं का महत्त्व नहीं है, विचारों का महत्त्व है. उन्होंने कहा कि भक्ति साहित्य ने संवाद का माहौल बनाया था. पूंजीवाद आत्मिक विपन्नताओं का युग है. भक्तिकाल में संवाद के अनेक केंद्र मौजूद थे. प्रोफेसर प्रधान का कहना था कि विचारों की सत्ता पर काम करते हुए समाज परिवर्तन का काम किया जा सकता है. उन्होंने युद्ध पर चर्चा करते हुए कहा कि हथियारों का जवाब हथियारों से नहीं दिया जा सकता. हमें भक्ति काल के विचारों से प्रेरणा लेकर हथियारों से लड़ना होगा. भक्ति काल हमें संसार को देखने की दृष्टि देता है. भक्ति काव्य सांस्कृतिक विरासत है. प्रोफेसर आशीष त्रिपाठी ने कहा कि आज विचारहीन दुनिया बनाने की कोशिशें हो रही है. ऐसे में भक्ति काल के कवियों पर विचार करना बड़ी उपलब्धि है. भक्ति काल हमारी जीवंत परंपरा का हिस्सा है. जब हम उलझन में होते हैं तो यह हमें रास्ता दिखाता है. हम जो कहना चाहते हैं वही कहें, यह प्रेरणा हमें संत कवियों से लेनी होगी. संगोष्ठी के विभिन्न सत्रों के संचालन में प्रो चितरंजन मिश्र, प्रो अनिल कुमार राय, प्रो विमलेश कुमार मिश्र, प्रो रामदरश राय, प्रो दीपक प्रकाश त्यागी, डॉ प्रेमव्रत तिवारी, डॉ नागेश राम त्रिपाठी आदि शामिल रहे. प्रतिभागियों को प्रमाण पत्र वितरित किए गए तथा एक कवि गोष्ठी का आयोजन भी प्रो अनंत मिश्र की अध्यक्षता और साहित्य अकादमी के संपादक अनुपम तिवारी के संयोजन में हुआ, जिसमें पंकज चतुर्वेदी, अनीता अग्रवाल, श्रीधर मिश्र, महेश अश्क, देवेंद्र आर्य आदि ने काव्यपाठ किया.