गीतांजलि श्री: मैंने बिल्कुल यह नहीं सोचा था कि मेरी यह किताब यहां तक पहुंचेगी। लिखने के पीछे कभी ऐसी सोच भी नहीं रही कि जवाब में पाठकों के भरोसे के अलावा कुछ मिले। वो बेशक मुझे पर्याप्त मिला। पहली बार हंस में प्रकाशित कहानी से लेकर अब तक।अब बुकर मिला, बेशक मेरे लिए यह एक बड़ी खुशी है, लेकिन उससे भी ज़्यादा ख़ुशी इस बात की है कि इस बार यह एक हिन्दी किताब को मिला है। यह हम सबकी साझा ख़ुशी है। मेरी पृष्ठभूमि साहित्य नहीं थी, न ही मैंने हिन्दी साहित्य का अध्ययन व्यवस्थित रूप में किया। मैं इतिहास की विद्यार्थी थी, और तीस साल की उम्र तक मेरा लेखक मेरे भीतर ही कहीं गुम था। ज़िन्दगी की और तमाम उलझनें थीं। युवावस्था का उत्साह, पुरानी मान्यताओं से अकुलाहट, कुछ नया करने की इच्छा और साथ ही अपने भविष्य की चिन्ताएँ भी।

औपचारिक पढ़ाई के दौर के आख़िर में जाकर यह हुआ कि मैंने ठान लिया कि, मुझे लिखना है। इसके बाद तो जैसे बाँध टूट गया, ख़ूब लिखा गया। लोगों ने सराहा भी, आलोचनाएँ भी हुईं। लेकिन जैसे एक रास्ता हमवार होना शुरू हो गया। सन्तोष मिला। उत्तर प्रदेश की पैदाइश हूँ, और हिन्दी पट्टी के कई शहरों में रहने का, सीखने का मौक़ा मिला है। पिता सरकारी नौकरी में थे, उनका तबादला होता रहता था, सो उनके साथ यहाँ-वहाँ रहते हुए हिन्दी को करीब से जाना। जिया। इससे वह कमी पूरी हुई, किसी हद तक, जो हिन्दी के विश्वविद्यालयी अध्ययन के अभाव में रह गई थी।
माई’ जो मेरा पहला उपन्यास था,  बहुत सहज ढंग से लिखा गया।धीरे-धीरे उसने पाठकों के बीच, हिन्दी पढ़ने-लिखने वालों के बीच अपनी एक जगह बनाई। ‘हमारा शहर उस बरस’ की तरफ लोगों का ध्यान बहुत जल्दी चला गया और इसको लेकर खूब लिखा भी गया। चर्चाएँ भी हुई। ‘रेत-समाधि’ के साथ मैंने एक लम्बा अरसा बिताया है। तकरीबन छह साल। लिखने से पहले मैं कोई फार्मूला नहीं बनाती, न ऐसा कोई खाका होता है, कि उपन्यास में यहाँ यह डालना है, वहाँ यह करना है। यह दरअसल एक यात्रा होती है। एक तरफ आप अपने पात्रों को रच रहे होते हैं, उन्हें खोल रहे होते हैं, वहीं आपके पात्र, आपका पाठ, आपकी भाषा आपको भी रच रहे होते हैं, खोल रहे होते हैं। लिखना सिर्फ़ अपने जाने हुए को दुनिया को बताना नहीं होता, अपने आपको जानने की प्रक्रिया भी होता है।


हर उपन्यास या कहानी को शुरू करना मेरे लिए एक यात्रा को शुरू करना है। अगर आपके पास एक लेखक-मन है तो दुनिया के साथ संवाद करने का अपका एक विशिष्ट  तरीक़ा होता है। एक उथल-पुथल आपके भीतर, आपके अन्तस में बाहर के समानान्तर चलती रहती है। कहा नहीं जा सकता कि कब कौन-सी बात, कौन-सा संवाद, कौन-सी छवि आपके भीतर की उमड़-घुमड़ से जाकर जुड़ जाती है, और आप लिखने बैठ जाते हैं; कहानी जब अपनी आत्मा को पा लेती है, अपने केन्द्र को जान लेती है तो आपके किरदार ही बताने लगते हैं कि आप कहाँ जाएँ, किधर जाएँ, दाएं या बाएँ । मेरी रचना अपना आरम्भ खोजती है और फिर उस रूह की तलाश में निकलती है जो आखिरकार मेरी क़लम की मार्गदर्शक बनती है।

सभी लिखने वाले  यह जानते हैं कि उनके कथानक भी, और उनके पात्र भी उनके आसपास ही कहीं होते हैं। कल्पना की कोई भी उड़ान आपको उस यथार्थ से बाहर नहीं ले जा सकती जिसमें आप जीते हैं, जो आपके आसपास मौजूद होता है। ‘रेत-समाधि’ ने जब अपनी लय पकड़ी, तो हर कृति की तरह बहुत कुछ उसने खुद ही तय किया। मैं लिखती रही। कुछ चीज़ें  एक क्षण में आ गईं, कुछ चीज़ों ने बहुत मेहनत भी करवाई। मैं जानती गई कि हमारे इर्द-गिर्द जो भी है वो आपस में जुड़ा हुआ है। जीव हों या जड़—सभी चेतना की कोई न कोई अवस्था हैं। सड़कें, गलियाँ, इमारतें भी सिर्फ़ पत्थर, मिट्टी या सीमेंट नहीं है। उन्होंने भी बहुत कुछ भोगा होता है। कहते हैं, जड़ वस्तुओं के पास भी अपने ऐसे चिह्न होते हैं जिनसे आप संसार की ख़ुशियों और दुखों की कथाएँ डिकोड कर सकते हैं।

लिखने की प्रेरणा, मैं कहूँ तो शायद किसी भी ईमानदार लेखक के लिए पुरस्कार नहीं होते। मैंने कभी यह कल्पना नहीं की थी कि मुझे इस किताब पर दुनिया का इतना बड़ा पुरस्कार मिलेगा। ऐसा मुझसे हो सकेगा, यह सोचना भी मेरे लिए मुश्किल था। लेकिन मैं ख़ुश हूँ, कुछ हैरान भी और बेशक कृतज्ञ। यह पुस्तक और इसकी रचनाकार दक्षिण एशियाई भाषाओं की समृद्ध साहित्यिक परम्परा से जुड़े हैं। विश्व का साहित्य इन भाषाओं के अनेक लेखकों की लेखनी तक पहुँच कर निश्चय ही समृद्ध होगा। और फिर यह हिन्दी में लिखा गया उपन्यास है। उस भाषा का जिसमें अनेक लेखक हैं जो अगर अनूदित होकर दुनिया के सामने आएँ तो और पुरस्कारों के हक़दार साबित होंगे।

एक भाषा के रूप में हिन्दी ने पिछले दशकों में बिला शक बहुत विकास किया। रचनात्मकता के लिहाज से भी, और विस्तार के लिहाज से भी। इस पुरस्कार के माध्यम से उसकी अन्तर्राष्ट्रीय पहचान के सिलसिले में अगर मेरी कोई सकारात्मक भूमिका बनती है, तो निश्चय ही यह मेरे लिए सुखद है। भाषा सिर्फ़ शब्दावली या वर्णमाला नहीं होती, वह एक पूरी संस्कृति, एक जीता-जागता व्यक्तित्व होती है। मेरे तईं, भाषा सिर्फ़ अपनी बात कहने का माध्यम भर नहीं है। रचना में वह बाकायदा एक पात्र, एक चरित्र, एक घटक के रूप में मौजूद होती है। वही है जिसकी छवियाँ अन्तत: पाठक के अवचेतन में लम्बे समय के लिए अंकित हो जाती हैं। यही पात्रों को उनका पर्यावरण देती है, और पाठकों को एक स्मृति। ‘रेत-समाधि’ में, पढ़नेवालों ने बताया है, कि भाषा का कुछ ऐसा इस्तेमाल मैं कर पाई हूँ, जो अलग है, जो उसे एक बड़ा अर्थ देता है। मैंने इसमें गाँव-जवार में बोले जानेवाले शब्दों से भी परहेज नहीं किया है। आख़िर इसी तरह कोई भी भाषा समृद्ध होती है।

आभार डेजी रॉकवेल का जिनके उद्यम से यह उपन्यास अंग्रेजी के माध्यम से एक बड़े पाठक वर्ग तक पहुंचा। और आभार भारतीयता के उस गझिन अनुभव का जिसके कैनवास पर यह रचना उकेरी जा सकी। इससे पहले यह उपन्यास फ्रेंच भाषा में भी आ चुका है। उसके लिए मैं फ्रेंच अनुवादक ………की भी आभारी हूँ। और हिंदी समेत उन तमाम भारतीय भाषाओं और उनके लेखकों की भी जिनकी रचना- परम्परा मुझ तक, और मेरी पीढी के और लेखकों तक आती है। हमें समृद्ध करती है।