एक लंबे अंतराल के बाद सत्येन्द्र कुमार का नया कविता संग्रह आया है। हिन्दी कविता के पाठकों के लिए सत्येन्द्र कुमार कोई नया नाम नहीं हैं। सत्येन्द्र कुमार अपने ढंग के हरफनमौला कवि हैं। कविता और समाज के लिए पूरी तरह सतत मुस्तैद। हिन्दी की तमाम महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिकाओं में उनकी रचनाएं प्रकाशित होती रही हैं। इनकी कविताओं का बांग्ला और उर्दू में अनुवाद भी हो चुका है। पहला कविता संग्रह ‘आशा इतिहास से संवाद है’ राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली से प्रकाशित हुआ था। एक कहानी संग्रह भी शीघ्र प्रकाश्य है।
सत्येंद्र कुमार वैसे तो बिहार के ऐतिहासिक शहर गया में रहते हैं। अपनी सामाजिक व सृजनात्मक प्रतिबद्धता के लिए सत्येंद्र कुमार अपनी रचनाओं को प्रकाशित करवाने को लेकर बेहद संकोची रहे हैं। इसी वजह से लंबे अंतराल के बाद इनका संग्रह आया है। वे हिंदी पट्टी के उन गिने चुने लोगों में हैं जिन्हें एक्टीविस्ट कवि कहा जा सकता है।उनके नए संग्रह से कुछ कविताएं –
#युद्ध स्थल में घर
युद्ध स्थल में सैनिक की आंखों से
टपकते हैं आंसू
तलहथी पर ठहर गये हैं आंसू के कतरे
जिसमें उतर आया है चांद
उसमें झिलमिलाती हैं
गांव की पगडंडियां…
बड़ा-सा नीम का पेड़
अपना घर
मां का कांपता चेहरा
घरौंदे बनाते बच्चे
और उदास-सी दरवाज़े पर खड़ी पत्नी।
मुस्कुराता है सैनिक
देखकर उसमें अपने घर का चेहरा।
दूर कहीं फिर धमाका होता है
सैनिक के हाथ कसने लगते हैं बंदूक पर
बिखर जाते हैं आंसू के कतरे
चांद के साथ घर भी
कहीं खो जाता है।
#बनारस
(एक)
बनारस के लिए अच्छा नहीं है
कबीर का इस तरह
छोड़कर चले जाना बनारस को।
मगहर में कबीर मरने जाते हैं
‘मगहर’ ज़िंदा हो जाता है कबीर से
लेकिन बनारस?
कबीर का लौटना ज़रूरी है बनारस के लिए?
(दो)
मस्ज़िदों से अज़ान
और मंदिरों से घंटियों की आवाज़ें
तेज हो रही हैं बनारस में
जब-जब कबीर दूर हटते हैं बनारस से
तब-तब मरने लगता है बनारस
(तीन)
अगर बचे रहे कबीर
तो बचा रहेगा बनारस
फिर तो आप निश्चिंत होकर
लगा सकते हैं डुबकी गंगा में
इत्मिनान से किसी गली
किसी चौराहे पर खड़े होकर
सुन सकते हैं
‘बिस्मिल्ला खाँ’ की शहनाई
‘किशन महाराज’ का तबला
ऐसे ही एक शहर
बसता है हमारे भीतर