होली भारत के सबसे पुरातन परंपरागत त्योहारों में से एक. संस्कृत और हिंदी साहित्य इससे भरा पड़ा है. श्रीमद्भागवत महापुराण में 'समूह रास' का वर्णन है, तो हर्ष की 'प्रियदर्शिका' 'रत्नावली' तथा कालिदास के 'कुमारसंभव'तथा 'मालविकाग्निमित्रम्' में भी 'रंग' अपने पूरे रंग में दिखता है.  रंगोत्सव को उसकी ऋतु 'वसंतोत्सव' से जोड़कर देखें तो महाकवि कालिदास रचित 'ऋतुसंहार' में एक पूरा सर्ग ही 'वसन्तोत्सव' को अर्पित है. यही नहीं छठी शताब्दी के महान संस्कृत कवि भारवि और सातवीं शताब्दी के महाकवि माघ की रचनाओं में भी यह ऋतु अपनी पूरी रंगत में है. यही नहीं चंद बरदाई द्वारा लिखे हिंदी के पहले महाकाव्य पृथ्वीराज रासो में भी होली का खूबसूरत वर्णन मिलता है. हिंदी साहित्य का आदिकाल, भक्तिकाल और रीतिकाल में रंगोत्सव अपने पूरे शबाब में दिखता है.

विद्यापति से लेकर भक्तिकालीन सूरदास, रहीम, रसखान, पद्माकर, जायसी, मीराबाई, कबीर और रीतिकालीन कवि बिहारी, केशव, घनानंद आदि ने अपनी रचनाओं में होली का बखूबी वर्णन किया है. भक्तिकाल में महाकवि सूरदास ने वसंत एवं होली पर 78 पद लिखे हैं. पद्माकर ने भी होली विषयक प्रचुर रचनाएं की हैं. इस विषय के माध्यम से कवियों ने जहां एक ओर नितान्त लौकिक नायक – नायिका के बीच खेली गई अनुराग और प्रीति की होली का वर्णन किया है, वहीं राधा- कृष्ण के बीच खेली गई प्रेम और छेड़छाड़ से भरी होली के माध्यम से सगुण साकार भक्तिमय प्रेम और निर्गुण निराकार भक्तिमय प्रेम का भी वर्णन किया है. शिव, कृष्ण, राम से लेकर हर युग में साहित्यकारों ने अपने आराध्य को लेकर होली गीत रचे. कागज से परदे तक का यह सृजनकर्म अब भी जाहिर है. यह और बात है कि तब से अब तक भीगे रे चुनारी..और रंग बरसे भीगे चुनर वाली तक यह स्वरूप काफी बदल चुका है. फिलहाल रंग की फुहारों के साथ जागरण हिंदी की ओर से होली की शुभकामनाएं!