नई दिल्लीः उपराष्ट्रपति एम. वेंकेया नायडु का कहना है कि भारत की सभ्यता का आधार ही समन्वयवादीसमावेशी तथा सौहार्दपूर्ण है. किसी और दर्शन या धर्म में समानता के सिद्धांत को इतने मौलिक रुप में नहीं अपनाया गया है जितना कि भारतीय दर्शन परंपरा में जिसके मूल में हिंदू धर्म है. भारत में धार्मिक आजादी पर जारी हाल की रिपोर्टों की चर्चा करते हुए उपराष्ट्रपति ने दोहराया कि सदियों से भारत भूमि पर विभिन्न विचारोंदर्शनों और मतों ने जन्म लिया और उनका अबाध प्रचार-प्रसार भी हुआ. गुरु नानक देव जी के 550वें जन्म जयंती वर्ष पर स्मारक सिक्का जारी करने के अवसर पर उन्होंने कहा कि भारतीय समाज की विविधता तो तीसरी सदी ईसापूर्व के सम्राट अशोक और खारवेल के अभिलेखों में ही परिलक्षित होती है. उन्होंने कहा कि भारतीय दर्शन वसुधैव कुटुंबकम की अवधारणा को स्वीकार करता है जिसमें पूरे विश्व को ही एक परिवार माना गया है. धार्मिक स्वतंत्रता हमारे संविधान के अनुच्छेद 25 तथा 28 के तहत सबका मौलिक अधिकार है. संविधान की पूर्वपीठिका में ही भारत को एक धर्म निरपेक्ष राष्ट्र स्वीकार किया गया है जिसके तहत धार्मिक भेदभाव के परे हर नागरिक को समान अधिकार प्राप्त हैं. उन्होंने कहा कि संविधान हमारे 5000 वर्षों के सांस्कृतिक मूल्यों का ही सार है.
उपराष्ट्रपति ने कहा कि गुरु नानक देव भारत की महान आध्यात्मिक विभूतियों में से एक थे. वे भक्तिकालीन उदार आध्यात्मिक परंपरा के सच्चे प्रतिनिधि थे. गुरु नानक देव जी ने मनुष्य की आस्थाओं और विश्वास को कर्मकांडों और अंधविश्वास के खंडहरों से निकाल कर वापस सामान्य व्यक्ति के हृदय और आत्मा में स्थापित किया. इस संदर्भ में उपराष्ट्रपति ने नारी सशक्तिकरण पर गुरु नानक देव जी के उदार दृष्टिकोण को अनुकरणीय बताया. उन्होंने कहा कि गुरु नानक देव जी ने संतुष्ट और खुशहाल जीवन जीने के लिये नैतिक और करुणामय मार्ग का प्रतिपादन किया. उन्होंने मानवता के तीन स्वर्णिम सिद्धांत प्रतिपादित किए – कीरत करो अर्थात अपनी जीविका मेहनत और ईमानदारी से कमाओंनाम जपो अर्थात ईश्वरीय कृपा को अपनी आत्मा में और अपने चतुर्दिक महसूस करो तथा वांद छको अर्थात नि:स्वार्थ भाव से दूसरों के साथ अपनी समृद्धि बांटो. नायडु ने कहा कि गुरु नानक देव जी ने शेयर एंड केयर की भारतीय परंपरा को सामाजिक नैतिकता का आधार प्रदान कियाजिसने गत 550 वर्षों से हमारा मार्ग दर्शन किया है. उन्होंने कहा कि ये कालातीत आदर्श आज कहीं अधिक प्रासंगिक है जब हम तीव्रतर दर से विकास कर रहे हैं. उपराष्ट्रपति ने कहा कि हमारा विकास सर्वस्पर्शी और सौहार्दपूर्ण होना चाहिए तभी वह स्थायी और सतत रह सकेगा. समृद्धि का कुछ ही हाथों में सीमित हो जानान केवल अर्थव्यवस्था को कमजोर करेगा बल्कि सामाजिक वैमनस्य भी पैदा करेगा.