नई दिल्लीः वाणी प्रकाशन ने ऑनलाइन एक शिक्षा शृंखला काशी हिंदू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर प्रभाकर सिंह के साथ शुरू की, जिसमें 'हिन्दी साहित्य का इतिहास: अध्ययन की नयी दृष्टि, विचारधारा और विमर्श' पर केंद्रित चर्चा शामिल है. इसी क्रम में आलोचक माधव हाड़ा ने 'हिन्दी के कथेतर गद्य' विषय पर केन्द्रित व्याख्यान दिया. माधव हाड़ा ने कहा कि कथेतर गद्य की रचनात्मकता औपनिवेशिक चेतना से मुक्त होने की जद्दोजहद का परिणाम है. हर जातीय समाज अपने सांस्कृतिक और वर्गीय ज़रूरतों के अनुसार साहित्य को सम्भव करता है. हिन्दी में कथेतर गद्य की रचनात्मकता इसी का परिणाम है. गद्य लेखन के आरम्भ से ही कथेतर गद्य में कई महत्वपूर्ण रचनाएँ रची गयीं. हिन्दी कथेतर गद्य की सैद्धांतिकी को भी विकसित किया गया. श्यामसुन्दर दास का साहित्यलोचन इसी का उदाहरण है. संगीत में फ्यूजन की तरह आज के साहित्य में कथेतर गद्य की रचनाएं रची जा रही हैं. आत्मकथा, संस्मरण, उपन्यास आपस में एक-दूसरे से इस तरह घुलमिल गये हैं कि साहित्य की रचनात्मकता का विकास हुआ है.
माधव हाड़ा ने यह दावा किया कि लघुता के इस दौर में साहित्य का हाशियाकरण विकसित हुआ है. उन्होंने काहा कि हिन्दी की कथेतर गद्य विधाओं में अगर कुछ प्रमुख रचनाकारों और उनकी रचनाओं का नाम लिया जाये तो उसमें काशीनाथ सिंह का काशी का अस्सी, राजेश जोशी का किस्सा कोताह, विश्वनाथ त्रिपाठी का व्योमकेश दरवेश, स्वयं प्रकाश की रचना एक कहानीकार की नोटबुक आदि कुछ प्रमुख रचनाएँ दिखती हैं. हाड़ा ने कहा कि आज गद्य की रचनात्मकता में तमाम गद्य विधाएँ एक-दूसरे की सीमाओं में घुसने को आतुर हैं. यह इस समय की विशेषता है कि गद्य का नया रूपबन्ध नए समय में अपने नये कलेवर के साथ विकसित हो रहा है. यों आलोचना में भी इसके कई उदाहरण देखे जा सकते हैं. इस संबंध में माधव हाड़ा की पुस्तक पंचरंग चोला पहर सखी री और राजेश जोशी की आलोचनात्मक पुस्तक एक कवि की नोटबुक इसका सुन्दर उदाहरण हैं.