हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत में वैष्णव-संकीर्तन की परम्परा में ‘भक्ति-संगीत’ के अनन्य उपासक पंडित जसराज का निधन, दरअसल संगीत की उस महान परम्परा का लोप है, जिसके अन्तर्गत पारम्परिक अर्थों में नवधा भक्ति को हजारों सालों से गाया जाता रहा है। भक्ति रस के आरम्भिक ग्रन्थ ‘उज्ज्वल नीलमणि’ को जैसे व्यावहारिक तौर पर जसराज जी ने अपनी कला-साधना का पाथेय बना डाला था। उनके मेवाती घराने का ख्याल भी पिछले कई दशकों से नये अर्थ-अभिप्रायों के साथ उनके गायन में छलक आता था। वे पुष्टिमार्गियों का ‘हवेली-संगीत’ गाते रहे हों या वैदिक मंत्रों को नारायण और वासुदेव की पुकार से सम्बोधित करते हों, हर जगह यह बेजोड़ गायक शास्त्रीयता की राह पर चलते हुए भक्ति का एक लोकपथ सृजित करता था। आज, जब नब्बे बरस की सार्थक ज़िन्दगी जीते हुए उनकी गायिकी ने विश्राम लिया है, तो यह बिना किसी लाग-लपेट के कहा जा सकता है कि आधुनिक सन्दर्भों में शास्त्रीय गायन के मूर्धन्य उपासकों की कड़ी में जसराज जी का अवसान, उस महान परम्परा को एक बड़े खालीपन तक ले आया है। वे उस पहली पंक्ति के अग्रगण्य गायक रहे, जिन्होंने हमेशा ही अपने गायन में पिता पण्डित मोतीराम और बड़े भाई, जो उनके मार्गदर्शी गुरु भी रहे पण्डित मनीराम जी की परम्परा को आत्मसात करते हुए अपने सात्त्विक गायन द्वारा उपज की ढेरों प्रविधियाँ आविष्कृत कीं।
उनके गायन में सहज ढंग से रचा-बसा वृन्दावन, उसी वैष्णवता का आँगन निर्मित करता था, जिसके लिए सूरदास ने कृष्ण की वंशी की टेर को ‘विरह भरयो घर आँगन कोने’ कहकर सम्बोधित किया है। यह संयोग ही रहा कि पण्डित हरिप्रसाद चैरसिया के साथ उनकी जुगलबन्दी ‘वृन्दावन’ में तीन रागों की अवधारणा राग केदार (गोकुल में बाजत कहां बधाई), राग अहीर भैरव (आज तो आनन्द आनन्द) और राग मिश्र पीलू में (ब्रजे वसन्तम्) कृष्ण की उपासना को समर्पित रहे। साणन्द, गुजरात के महाराजा जयवन्त सिंह जी बाघेला के नजदीकी रहे पण्डित जसराज ने उनकी लिखी बन्दिशों को भी भरपूर गाया, जिसमें दुर्गा-स्तुति और कृष्ण-महिमा गायन का स्थान बहुत आदर से लिया जाता है। पुष्टिमार्ग के आठों प्रहर के गायन में, जो श्रीनाथ जी की आराधना में सम्पन्न होते रहे, पण्डित जसराज ने जब अपना एल.पी. तैयार किया, तो अधिकतर रागों की बन्दिशें भक्ति पदावलियों से चुनीं। जब वे अष्टछाप के कवियों को गाने के लिए उन्मुख हुए, तो उसमें भी छीतस्वामी का पद ‘गोवर्धन की शिखर चारु पर’, कृष्णदास की ‘खेलत-खेलत पौढ़ी राधा’ और गोविन्दस्वामी की ‘श्री गोवर्धन राय लला’ को गाकर दुनिया भर में प्रचलित कर दिया। मुझे याद नहीं पड़ता कि अष्टछाप को इतनी विपुलता से पण्डित जी के अलावा किसी और ने गाया हो। वसन्त पंचमी, जन्माष्टमी और राधाष्टमी जैसे उत्सवों में पण्डित जी का विभिन्न मठ-मन्दिरों और कन्सर्ट में उत्फुल्ल गायन जिस किसी ने भी सुना या टी.वी. पर देखा है, वह समझ सकता है कि किस तरह वे नवधा भक्ति के उस अन्तिम सोपान पर जाकर समर्पित थे, जिसके लिए साधना के अलावा ख़ुद की गायिकी में विचार, नवाचार और कल्पना का तालमेल बिठाना पड़ता है। अनगिनत बन्दिशें हैं, जो पण्डित जसराज की आवाज में ढलकर भक्ति संगीत का शिखर रच चुकी हैं। इसमें ‘रानी तेरो चिरजीवौ गोपाल’, ‘हमारी प्यारी श्यामा जू को लाज’ और ‘लाल गोपाल गुलाल हमारी आँखन में जिन डारो जी’ सुनकर विस्मित हुआ जा सकता है। उम्र के ढलते वर्षों में उनके द्वारा बेहद मन से गाया जाने वाला ‘ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय’ जैसे उनका सिग्नेचर गायन बन गया था।
अपनी मधुरोपासना गायिकी, घराने की कठिन कण्ठ-साधना, भक्ति का विहंगम आकाश रचने की उदात्त जिजीविषा और वैष्णवता के आँगन में शरणागति वाली पुकार के लिए पंडित जसराज हमेशा याद किये जायेंगे। भक्ति के लिए सबसे ज़रूरी तत्त्व विह्वलता को जिस तरह पंडित जी शास्त्रीय स्वरूप प्रदान करते हैं, वह उनके गायन-शैली की वो अनूठी बात है, जिसे आगे ढूंढ-ढूंढ कर सुना और समझा जायेगा। मेरे लिए व्यक्तिगत तौर पर भी यह दुःख की वह घड़ी है, एक ऐसा अप्रतिम कला-साधक संसार से चला गया है, जिसने राग सिन्ध भैरवी में सूरदास का भजन गाकर बावला बना दिया था- ‘ऊधो जोग सिखावन आए…’।