खंडवा में जन्मे, इंदौर में बसे डॉ. शरद पगारे के कई उपन्यास और कहानी-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। उन्होंने अपनी कृतियों में ऐतिहासिकता को जगह दी। शरद पगारे को कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सम्मानों से सम्मानित किया गया है।  इनकी कई बेहद चर्चित उपन्यास हैं- गुलारा बेगम, गंधर्व सेन, बेगम जैनाबादी, उजाले की तलाश, पाटलिपुत्र की साम्राज्ञी । इन्होंने कहानियां भी लिखी हैं, इनके पर्रमुख कहानी संग्रह हैं- एक मुट्ठी ममता, संध्या तारा, नारी के रूप, दूसरा देवदास, भारतीय इतिहास की प्रेम कहानियाँ, मेरी श्रेष्ठ कहानियाँ। अंतराष्ट्रीय सम्मान मिलने के बाद शरद पगारे ने जागरणहिंदी से एक्सक्लूसिव बातचीत की, जिसके प्रमुख अंश प्रस्तुत हैं।
प्रश्न- मास्को में मिले ‘लेव टॉलस्टॉय सम्मान’ पर बधाई, साहित्य के अपने इस लम्बे और सफल सफ़र को आप किस तरह देखते हैं?

धन्यवाद। मैं लेनिन या स्टालिन के देश मे नही महान लेखक टॉलस्टॉय, गोर्की और पुश्किन के देश गया था । उनके घर देखना मेरे लिए सपने के सच होने जैसा था। बिना परिश्रम और अध्ययन के साहित्य में उपलब्धियां नही मिलती। साथ ही निरंतर लेखन अनिवार्य है। प्रसिद्ध लेखकों के अनुभव और शब्द संपदा से प्रेरणा मिलती है और ये प्रेरणा ही साहित्यकार के लिए ईंधन का काम करती है|

प्र- भाषा के रूप में हिंदी को देश और विदेश में किस तरह आँका जाता है? क्या हिंदी बोलने वालों या हिंदी में काम करने वालों के लिए सच में बेहद कम संभावनाएं हैं ?

विदेश में हिंदी को जो स्थान मिलना चाहिए अभी भी प्राप्त नही हुआ है। भारत सरकार और अन्य संस्थाएं उदासीन है। कुछ प्रयास हो रहा है। हां हिंदी में काम करने वालो को जब तक इस से रोजगार नही मिलेगा स्थिति नही सुधरेगी। इसके लिए प्रत्येक स्तर पर काम किया जाना ज़रूरी है|

प्र- लेखन प्रक्रिया किस प्रकार के अनुशासन और अभ्यास की मांग करती है ?

लेखन, विचारों को मथने की सुरुचिपूर्ण अभिव्यक्ति है। इसके लिए अनुशासन अत्यंत जरूरी है। मैं पिछले 60 साल से नियमित लिख रहा हूँ। लिखने की लिए पढ़ना बेहद जरूरी है। मैं पढ़ता भी बहुत हूँ। लेखन, सृजन की अत्यंत महत्वपूर्वण विधा है।

प्र- नई पीढ़ी के साहित्यकारों से आपकी क्या अपेक्षाएं या शिकायत (अगर कोई हैं तो) हैं ?

नई पीढ़ी के साहित्यकारों में मैं अध्ययन की कमी पाता हूं। अपनी प्रतिभा और ऊर्जा का वे पूरा दोहन नही कर रहे। धैर्य की कमी दिखती है। नव साहित्यकारों से अपेक्षा है कि वे साहित्य सृजन में जल्द बाज़ी न करें। लेखन धीमी आंच पर पकने वाली सतत प्रक्रिया है, जितना पकेगी, उतना ही स्वाद आएगा|