ओस्लोः भारतीय-नार्वेजियन सूचना एवं सांस्कृतिक फोरम और स्पाइल-दर्पण पत्रिका के संयुक्त तत्वावधान में एक डिजिटल संगोष्ठी का आयोजन हुआ, जिसमें सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक की कहानी 'लाश के वास्ते' का पाठ, परिचर्चा और अंतर्राष्ट्रीय कवि सम्मेलन सम्पन्न हुआ. कार्यक्रम के मुख्य अतिथि प्रो शैलेन्द्र कुमार शर्मा, विशिष्ट अतिथि डॉ दीपक पाण्डेय थे. अध्यक्षता डॉ कुंअर वीर सिंह मार्तण्ड ने तो संचालन सुवर्णा जाधव ने किया. कार्यक्रम का शुभारम्भ वाणी वंदना से अनुराग अतुल ने किया. तकनीकी सहयोग अनुराग शुक्ल तो चित्रात्मक सहयोग डॉ पूर्णिमा कौशिक ने दिया. बतौर मुख्य अतिथि समालोचक प्रो शैलेन्द्र कुमार शर्मा ने कहा कि सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक' की कहानी 'लाश के वास्ते' प्रेमचंद की 'कफ़न' परम्परा की कहानी है. प्रेमचंद ने इस बात को लेकर चिंता जाहिर की थी कि अभाव और संघर्ष का जीवन जीने वाले, मृत देह के अंतिम क्रिया कर्म के लिए भी लोगों और समाज की ओर देखेंगे. शुक्ल की कहानी इस परंपरा में नया भी जोड़ती है. यह कहानी वर्तमान सन्दर्भ में भी प्रासंगिक है. प्रो शर्मा ने कहा कि अभी हम लोग आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं. जिन शहीदों, स्वतंत्रता सेनानियों ने हमें आजादी दिलायी है; हमारा दायित्व उनकी परम्परा को आगे बढ़ाने वाले परिवारजनों को सम्मानजनक जीवन देने का है. डॉ आकांक्षा मिश्रा ने कहा कि वैद्य जी राहगीरों से बंदर की मृत्यु होने पर चंदा लेकर अंतिम संस्कार किया करते थे. एक दिन उनके सामने पिता की अर्थी होती है, और कफ़न के लिए पैसा नहीं है. यह एक असंवेदनशील समाज की परिकल्पना है जहां पिता की अर्थी का संस्कार भी राहगीरों से चंदा लेकर होता है.
डॉ रश्मी चौबे ने कहा कि इस कहानी में दया और करुणा के भाव का अतिरेक है, क्योंकि वैद्य जी की सहजता और समाजसेवा के कारण वह मजार और मंदिर दर्शन करने जाने वाले दोनों उनको इज्जत देते हैं. यहां ध्वनियात्मकता इतना सुन्दर है कि मुझे लगा कि मैं वहां खड़ी देख या सुन रही हूं. प्रो हरनेक सिंह गिल ने कहा कि साहित्य समाज की आलोचना भी होता है, वह इस कहानी में व्यक्त हुआ है. यह कहानी हमारे समाज के एक निर्मम पक्ष को सामने लाती है. यह मानवीय शक्तियों और दुर्बलताओं को व्यक्त करने वाली है. जो सच्चा सामाजिक कार्यकर्ता होता है वह अपने लिए सारी सुख सुविधाएं नहीं जुटा पाता है. समाज के लिए जीवन जीता है. डॉ हरी सिंह पाल ने कहा कि यह एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी की कहानी है, जिसमें वैद्य जी कहते हैं कि सरदार भगत सिंह को शहीद होने पर सम्मान मिल गया पर उनके पिताजी को नहीं मिला क्योंकि वह जीवित रहे. इस कहानी में टायर सोल चप्पल का जिक्र है जो उस समय प्रचलित थी. डॉ कुंअर वीर सिंह मार्तण्ड सहित अनेक लोगों ने कहा कि कहानी का शीर्षक बहुत आकर्षक है. अचानक जिज्ञासा हो जाती है कि क्या हुआ लाश को? मार्तण्ड जी ने कहा कि उन्होंने देखा है कि मयूर मर जाता है तो उसके लिए चंदा होता है, उसकी तेरहवीं होती है. समाज में अब कुत्ता और बिल्ली का भी संस्कार करते हैं. इसके बाद हुए अंतर्राष्ट्रीय कवि सम्मेलन में डॉ नीलम, अलका कांसरा, ममता कुमारी, डॉ हरी सिंह पाल, प्रो हरनेक सिंह गिल, डॉ रश्मि चौबे, डॉ पूर्णिमा कौशिक, सुवर्णा जाधव, डॉ गंगा प्रसाद गुणशेखर, डॉ कुंअर वीरसिंह मार्तण्ड, डॉ सुषमा सौम्या, डॉ ऋषि कुमार मणि त्रिपाठी, डॉ राम बाबू गौतम, निर्मल जसवाल, सुरेश पांडेय और नार्वे से सुरेश चन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक' शामिल हुए