महाकवि सूरदास संत और महान संगीतकार थे. उन्होंने जन-जन को भगवान श्री कृष्ण की बाल लीलाओं से परिचित करवाया था.  दृष्टिहीन होकर भी उन्होंने बाल कृष्ण की लीलाओं का जो मनोहर संसार रचा, उसका कोई जोड़ नहीं है. मान्यता है कि वह जन्मांध थे, पर प्रतिभा केवल आंखों की मुहताज नहीं होती. वह विलक्षण प्रतिभा के धनी थे. बचपन में ही सगुण ब्रह्म को निहारने की विद्या में वह पारंगत हो चुके थे. कहा जाता है कि 6 वर्ष की अवस्था में ही उन्होंने अपना घर त्याग दिया था और आगरा और मथुरा के बीच बने गऊघाट के किनारे रहने लगे थे. इसी घाट पर उनकी भेंट संत वल्लभाचार्य से हुई थी, जिन्होंने सूरदास को पुष्टिमार्ग में दीक्षित किया था. वल्लभाचार्य से दीक्षित होने के बाद ही सूरदास ने पुष्टिमार्ग के सिद्धांत के अनुरूप कृष्ण की उपासना की तथा उनके लिए पदों की रचना की.
महान कवि सूरदास की गणना मध्यकालीन सगुण भक्ति के रचनाकारों में की जाती हैं. सूरदास ने मध्यकाल में वात्सल्य रस को आधार बनाकर कृष्ण की बाल लीलाओं का बहुत ही मनोहारी तथा अद्भुत चित्रण किया था. अपने साहित्यिक पदों में कृष्ण की बाल लीलाओं का चित्रण इन्होंने इतनी सूक्ष्मता से किया है कि इनके जन्मांध होने पर विश्वास ही नहीं होता. सूरदास जी ने अपने ग्रंथों की रचना ब्रज भाषा में की. हिंदी साहित्य के इतिहास में इनका स्थान अन्य मध्यकालीन सगुण काव्य लेखकों में अद्वितीय माना जाता है. महाकवि सूरदास ने अपनी रचनाओं में अधिकतर शांत रस का प्रयोग किया था. राधा और कृष्ण की रासलीला का वर्णन करने के लिए उन्होंने अपने पदों में श्रृंगार रस का भी प्रयोग किया है. उनके साहित्यिक योगदान के चलते ही उनके जन्म की सटीक अंग्रेजी तिथि न होने के बावजूद हिंदी तिथि से वैशाख शुक्ल पंचमी को सूरदास जी की जयंती हिंदी साहित्य प्रेमियों द्वारा देश भर में मनाई जाती है. इस दिन स्कूल और कॉलेजों में उनकी रचनाओं तथा जीवन के बारे में बताया जाता है और उनके पद गाए भी जाते हैं.