जम्मू: 'मुझे खुशी है कि कश्मीर फाइल्स जैसी फ़िल्म बनी क्योंकि विस्थापन का दर्द तो लोगों के सामने आना ही चाहिए.' यह कहना है जम्मू-कश्मीर पर अपनी कृतियों को लेकर दुनिया भर में चर्चित हिंदी की वरिष्ठ साहित्यकार चंद्रकांता का. वह जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय के हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषा विभाग और केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा के संयुक्त तत्वावधान में ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह सभागार में दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का एक महत्त्वपूर्ण सत्र 'हिंदी साहित्य को जम्मू-कश्मीर की देन' विषय पर बतौर मुख्य वक्ता बोल रही थीं. हालांकि इस अवसर पर उन्होंने यह भी कहा कि विस्थापन पर लिखने के लिए विस्थापित होना कोई जरूरी नहीं है. इस सत्र की अध्यक्षता प्रख्यात डोगरी एवं हिंदी साहित्यकार डॉ शिव निर्मोही ने की. अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में उन्होंने कहा कि जम्मू-कश्मीर में 16वीं शताब्दी से ही हिंदी साहित्य प्राप्त होने लगता है. उनका सुझाव था कि जम्मू-कश्मीर के लेखकों की रचनाओं का विश्वविद्यालय में संग्रहालय बनाया जाए.
संगोष्ठी के इस सत्र को संबोधित करते हुए महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय वर्धा के प्रो कृपाशंकर चौबे ने कहा कि हिंदी साहित्य में अन्य विमर्शों की तरह निर्वासन भी एक विमर्श होना चाहिए. बतौर अतिथि वक्ता दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रो निरंजन कुमार ने कहा कि किस प्रकार अनुच्छेद 370 हटने से जम्मू-कश्मीर के अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों को उनका अधिकार मिला है, इस पर विस्तार से चर्चा होनी चाहिए. इस सत्र का संचालन डॉ विनय कुमार शुक्ल ने और धन्यवाद ज्ञापन डॉ अरविन्द कुमार ने किया. इस सत्र में विभिन्न शोधार्थियों जिनमें आरती देवी, कृष्ण मोहन आ. आशा, पूजा शर्मा, सौम्य वर्मा, कृष्णा अनुराग, प्रियंका सरोज, सोनू भारती, प्रभाकर कुमार आदि ने अपने शोध-पत्र का वाचन किया.