नई दिल्लीः देश में पुस्तक संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए स्थापित राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत ने जैसे कोरोना काल को एक ऐसे अवसर के रूप में बदल दिया है, जिससे अंग्रेजी और अंग्रेजियत को बढ़ावा मिले. अध्यक्ष के रूप में प्रोफेसर बलदेव भाई शर्मा के कार्यकाल में हिंदी के साथ भारतीय भाषाओं को थोड़ी प्रमुखता मिली पर क्षेत्रीय क्षत्रप और भाषाई संपादकों ने अपने प्रिय लेखकों और गुटों को बढ़ावा देने के चक्कर में उनके कार्यकाल का पूरा लाभ नहीं उठाया. उनके जाने के बाद जब प्रोफेसर गोविंद प्रसाद शर्मा ने न्यास के मुखिया के रूप में आए, तो उनके प्रशासनिक अनुभवों को देखते हुए लगा कि ये जरूर भारतीय भाषाओं के लिए कुछ करेंगे. पर वह जब तक कुछ करते तब तक निदेशक के पद पर भारतीय सेना से जुड़े एक अफसर युवराज मलिक की नियुक्ति हो गई.
न्यास के कामकाज पर पैनी नज़र रखने वाले पत्रकारों की मानें तो मलिक की नियुक्ति के बाद से अंग्रेजी का बोलबाला बढ़ना शुरू हो गया. आलम यह है कि पहले हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में आने वाली राष्ट्रीय पुस्तक न्यास की प्रेस विज्ञप्तियां अब केवल अंग्रेजी में आ रही हैं. यहां तक कि न्यास के सोशल मीडिया पेज ने भी पूरी तरह अंग्रेजीयत को अपना लिया है. स्टोरी लाउंज के नाम पर भारतीय भाषाओं के लेखकों के कार्यक्रम की सूचना व विज्ञप्ति भी अंग्रेजी में ही पोस्ट होती है. इतना ही नहीं कोरोना काल में रिसर्च पर आधारित पुस्तकों का लंबा चौड़ा पैनल बनाकर आनन फानन में किताबें लिखवाई गईं, वे सभी अंग्रेजी में थीं. इतना ही नहीं ऑन लाइन बुक पब्लिशिंग कोर्स में भी अंग्रेजी ही छाई रही. न्यास के इस तरह के बढ़ते अंग्रेजी प्रेम से न केवल भारतीय भाषाओं के लेखक बल्कि पुराने कर्मचारी भी हतप्रभ हैं. कुछ लेखकों का कहना है कि एक तरफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारतीय भाषाओं को बढ़ावा देना चाहते हैं, दूसरी तरफ रमेश पोखरियाल निशंक के मंत्रालय से वित्तपोषित न्यास उन्हीं के उद्देश्यों में पलीता लगा रहा है. यह ठीक है कि अंग्रेजी कोई विदेशी भाषा नहीं, पर भारत, भारतीयता व भारतीय संस्कृति को बढ़ावा देने के अपने लक्ष्य को क्या न्यास व मंत्रालय भुला रहा?