जयपुर: समानांतर साहित्य महोत्सव में ' सुर मेरा तुम्हारा' विषय पर दिलचस्प बातचीत हुई जिसके प्रतिभागी थे पंकज राग, पवन झा , शबाना डागर। इस सत्र के मॉडरेटर थे विनोद भारद्वाज।  बातचीत की शुरुआत करते हुए  पवन झा ने  कहाजब गायकी को रिकार्डस पर सहेजा जाना लगा तब से म्यूजिक इंडस्ट्री की शुरुआत हुई।  शुरुआत में थियेटर से  सिनेमा में संगीत  आया। के.एल सहगल पहले  ऐसे सिंगिंग स्टार थे जिन्होंने संगीत  के लिए दीवानगी पैदा की। आवाज की दुनिया जो रेडियो व रिकॉर्डेड म्यूजिक से बनी उसने फ़िल्म संगीत को मदद पहुंचाई।"

पवन  झा ने आगे बताया " के.एल सहगल हिंदुस्तानी संगीत के सबसे बड़े गायक थे उन्होंने उसे स्टारडम प्रदान किया। लेकिन फ़िल्म पत्रकारिता ने 1931 से 1950 तक  का कोई दस्तावेज़ीकरण नहीं किया गया। ये काम 1970 के बाद राजकपूर से शुरू हुआ।  हिंदी सिनेमा के तीन स्तंभ थे आज़ादी से पहले बंबई, लाहौर और बंगाल। सहगल कलकत्ता में रहा करते थे। "  1931 से फ़िल्म संगीत पर प्रसिद्ध किताब 'धुनों की यात्रा ' लिखने वाले  पंकज राग ने संगीत की सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ की चर्चा करते हुए कहा  " पहले की  धुन इतने सहज सरल  धुन बनाते की नर्सरी राइम्स जी तरह लगता था। संगीत को सिर्फ शुद्ध रागो की बारीकियां से न समझे बल्कि  उनके संदर्भ से  भी समझे, किस किस्म की सामाजिक आर्थिक संदर्भो में  ये संगीत आये ये देखना चाहिए। न्यू थिएटर्स का बड़ा योगदान था रिकॉर्डेड म्यूजिक में। बाद में अलग अलग  जगह लोगों से  अपने अपनी जगहों के लोकधुन को लेकर आये। जैसे चित्रगुप्त बिहार की लोकधुन लेकर आ गए। "

 पंकज राग ने आगे कहा " अधिकांश धुनें पहले बनती थी शब्द बाद में लिखे जाते थे। शैलेन्द्र इसके मास्टर थे। शैलेंद्र बड़ी बड़ी बात दो शब्दों में कह दिया करते थे। ऐसे ही नीरज  थे।  साहिर, मजरूह, आरएम धवन आदि  भी। इन गीतों में सहजता  होने  के साथ साथ   गहरी सामाजिक चेतना  भी थी । 1970 के बाद अच्छी फिल्मों के बनने का काम शुरू हुआ। जो  समानांतर सिनेमा था उसमें संगीत का कंटेट बहुत कम था।"

 ध्रुपद गाने वाले  डागर परिवार  की शबाना ने कहा " ध्रुपद मंदिरों में गया जाता है। ध्रुपद को नित नया माना जाता है, जो खुद इतना  संपूर्ण है उसे फिल्मों में नहीं लाया जा सकता। तानसेन ध्रुपद गाने वाले  ध्रुपदिया थे । चूंकि यह एलीट लोगों का , राजघरानों  से आया है इस कारण भी फ़िल्म में न ढल पाया।"