नई दिल्लीः अपनी पत्रिका 'युद्धरत आम आदमी' की तर्ज पर जीवन भर आदिवासी अधिकारों की पक्षधर रही साहित्यकार और नारीवादी रमणिका गुप्ता का निधन हो गया. वह 89 साल की थीं और आखिरी समय तक साहित्य और समाजसेवा के क्षेत्र में सक्रिय थीं. उनका व्यक्तित्व बहुआयामी था, इसीलिए साहित्य, राजनीति, सामाजिक सरोकार समेत कई क्षेत्रों में उनका बराबर का दखल था. रमणिका गुप्ता का जन्म 22 अप्रैल,1930 को पंजाब के जमींदार परिवार में हुआ था. उन्होंने पंजाब और दिल्ली ने पढ़ाई कर एमए तथा बीएड की डिग्री हासिल की. उनके पति सिविल सर्विस में थे, जिनका पहले ही निधन हो चुका था. लिखने-पढ़ने के अलावा उनकी सियासती पारी को ऐसे देख सकते हैं कि वह साल 1974 से 1977 तक हजारीबाग कांग्रेस कमेटी की अध्यक्ष रहीं. मांडू विधानसभा से 1980 में कांग्रेस पार्टी की उम्मीदवार के रूप में विधायक बनीं. इसी दौर में आदिवासियों की सेवा के प्रति उनमें ललक जगी.
सामाजिक आंदोलनों के लिए विशेष पहचान बनाने वाली रमणिका वह पूरे साढ़े आठ वर्षों तक विधान पार्षद रहीं. उन्होंने ट्रेड यूनियन लीडर के तौर पर भी काम किया.  एक साथ 19 पुस्तकों की रचना कर उन्होंने एक नया कीर्तिमान गढ़ने की कोशिश की. उन्होंने लगभग 21 पुस्तकों का संपादन किया. उनकी आत्मकथा आपहुदरी को आलोचक मैनेजर पांडे ने एक दिलचस्प और दिलकश आत्मकथा बताया था. उन्होंने कहा था कि ये एक स्त्री की आत्मकथा है जिसमें समय का इतिहास, विभाजन और बिहार के राजनेताओं के चेहरे की असलियत दर्ज है. रमणिका ने पिछले साल हजारीबाग के विनोबा भावे विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. रमेश शरण से मिलकर पुस्तक खरीदने के लिए दस लाख रुपए का चेक भी सौंपा था. रमणिका गुप्ता का जीवन संघर्ष काफी उतार चढ़ाव भरा रहा. उनकी कहानियों में वेदना एवं संवेदना थी. बच्चे विदेश में थे, पर वह दलित, आदिवासी समाज को ही अपना परिवार मानती रहीं. श्रद्धांजलि.