वाराणसीः यों तो मुंशी प्रेमचंद समूचे साहित्य जगत के हैं, इसलिए उनकी जयंती पर देश भर में कार्यक्रम की भरमार रही, पर काशी हिंदू विश्वविद्यालय का महिला महाविद्यालय इसमें एक कदम और आगे रहा. वहां मुंशी प्रेमचंद की जयंती की पूर्व संध्या से ही आयोजन शुरू हो गया था, जो मुंशी प्रेमचंद की 138 वीं जयंती पर मुख्य कार्यक्रम के साथ संपन्न हुआ. कुलगीत के बाद अतिथियों का स्वागत करते हुए प्राचार्या प्रो.चंद्रकला त्रिपाठी ने कहा कि प्रेमचंद सिर्फ हिंदी वाले कि ही नहीं है. प्रेमचंद आज क्यों प्रासंगिक हैं? क्योंकि प्रेमचंद किसान संस्कृति से होते हुए भारतीयता की बात रखते हैं. उनकी भारतीयता में गांव की खूशबू है और मजहबी मेल भी. उनके पात्र सहज भी हैं और जागरूक भी. 

 

महिला महाविद्यालय के उर्दू विभाग के प्रो.रिफत जमाल इस बात को व्याख्यायित किया कि साहित्य ने स्वतंत्रता की लड़ाई प्रेमचंद के माध्यम से कैसे लड़ी. यही नहीं उन्होंने इस बात पर भी प्रकाश डाला कि भारतीय संस्कृति की खुशबू प्रेमचंद की रचनाओं इतनी गहराई तक गुथी है कि उसे अलग देखना संभव ही नहीं. प्रेमचंद ने तत्कालीन समस्याओं पर प्रकाश डाला एवं किसान, शोषित और दलित को अपनी रचनाओं का नायक बनाकर अपनी बात कह दी.

 

भौतिकी विभाग की आचार्या डॉ. स्वाति का कहना था कि प्रेमचंद की कहानियों का समाज पर कैसा प्रभाव पड़ा अगर इसे समझना हो तो प्रेमचंद लिखित कहानी 'सद्गति', 'गोदान', 'गबन', 'ईदगाह' जैसी अन्य कहानियों पर बनी फिल्म को देखने की जरूरत है.

 

मुख्य अतिथि के रूप में शहर के सुविख्यात विद्वान राजेश्वर आचार्य ने कहा कि प्रेमचंद कला, साहित्य और संस्कृति के अद्भुत रचनाकार थे. प्रेमचंद के साहित्य और समाज का जो संबंध है उस पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने उनके कई संस्मरण उद्धृत किए. उनका कहना था कि क़फ़न कहानी प्रेमचंद की चेतना को प्रदर्शित करती है. प्रेमचंद का पात्र सब कुछ होने के साथ-साथ मनुष्य भी होता है, और यही उनकी कहानियों को विशेष बनाता है. प्रेमचंद की रचना का नाट्य रूपांतरण तृतीय वर्ष के छात्रों के द्वारा प्रस्तुत हुआ, जिसमें अंजली, वंदना, अर्चना, अंकिता,आदिता, निशा, आराधना और पूजा ने प्रस्तुति दी. कार्यक्रम का संचालन प्रो. सुमन जैन एवं धन्यवाद ज्ञापन डॉ. उर्वशी गहलोत ने किया.

 

खास बात यह कि 'प्रेमचंद के अच्छे दिन' शीर्षक से कल ही डॉ त्रिपाठी ने सोशल मीडिया पर लिखा था, जुलाई महीना बनारस में प्रेमचंद का महीना है. कई घटनाएं संदर्भ मकान और गलियां, बहुतेरी गवाहियां उनके रचनात्मक संघर्ष जीवन संघर्ष की रखती हैं. आलोचना ने उनके रचना संसार में भारतीय समाज के फिर से जी उठने का और उस कुत्सित को उजागर कर उससे टकराती जनशक्ति का रुप देखा जो अपने देहाती पन में बहुत जिंदा और कांइयो से निबटने लायक काइयां भी थी. टॉल्यस्टाय ने ऐसा किसानी जीवन गढ़ा तो मगर रंगतें ज्यादा प्रेमचंद के यहां थीं. यक़ीन न हो तो फिर पढ़ जाइए.

 

उदात्त की क्लासिकी को तोड़ कर प्रेमचंद ने वे किरदार गढ़े जो अपने असलीपन के कारण महान थे. किसी चरित्र पर अतिरिक्त रूप से महान होने का बोझ नहीं डाला. वे तमाम महानताओं से चरमराती भारतीयता नहीं लिख रहे थे क्योंकि उनकी रगों में भारतीयता के असली रंगों में जी उठने का पूरा संघर्ष तड़प रहा था.

 

प्रेमचंद के अच्छे दिन उनकी महानताओं के प्रायोजित कार्यक्रमों से बनेंगे जिनकी फंड खपाने जैसी सक्रियताएं जगजाहिर हैं या प्रेमचंद को हमेशा एक सही और जरुरी जीवन संदर्भ के रुप में बनाए रखने से बनेंगे , सोचना तो पड़ेगा ही. कबीर, महामना, प्रेमचंद, धूमिल सब विधि विधानों की भेंट न चढ़ जाएं.