नई दिल्लीः प्रभा खेतान फाउंडेशन द्वारा आयोजित किताब फेस्टिवल के चौथे दिन लेखिका दमन सिंह की पुस्तक 'असाइलम' का विमोचन हुआ. इस दौरान दमन सिंह से अहसास वूमेन अहमदाबाद प्रियांशी पटेल ने संवाद किया. अर्चना डालमिया ने प्रारूप और प्रीति गिल ने स्वागत किया. लेखिका ने बताया कि मनोविज्ञान में उनकी रुचि समय के साथ मजबूत होती गई और यह पुस्तक लिखने का विचार बना. इसकी वजह यह भी है कि 'मानसिक बीमारी' शब्द के आसपास बहुत सारी वर्जनाएं हैं. हम इसके बारे में उतना खुलकर बात नहीं करते, जितनी करनी चाहिए. मेरी किताब मानसिक बीमारी या इससे निपटने के तरीके के बारे में नहीं है बल्कि यह कहानी है कि पिछले 125 वर्षों में भारत में मानसिक स्वास्थ्य देखभाल कैसे विकसित हुई. यह एक ऐसी कहानी है जो देश के एक मानसिक अस्पताल से शुरू होती है और हमें देशभर का सफ़र कराती  है. आज के भारत में मानसिक अस्पताल देश के स्वास्थ्य परिदृश्य का एक बहुत छोटा हिस्सा हैं.  पुस्तक में 18 वीं शताब्दी के डेटा और अध्ययन शामिल हैं.

दमन सिंह ने बताया कि 18वीं शताब्दी में, पागलों के लिए असाइलम शब्द का उपयोग किया जाता था, क्योंकि यह शब्द आमतौर पर ब्रिटिश भारत में बोला करते थे. ये शरणस्थल अंधेरे से घिरे, नीरस और दमनकारी स्थान थे. ये वे स्थान थे जो पागलों को सीमित और नियंत्रित करने के लिए थे. 19वीं शताब्दी में दुनिया के कुछ हिस्सों में सोचने का एक वैकल्पिक तरीका सामने आया था. यह महसूस किया गया कि पागलपन कोई अलौकिक चीज नहीं है जो ग्रहों या बुरी ताकतों या तंत्र-मंत्र से प्रभावित हो. यह किसी भी शारीरिक बीमारी की तरह है. यह कुछ ऐसा होता है जो शरीर के भीतर होता है और जैसे हम शारीरिक बीमारियों का इलाज करते हैं, वैसे ही हमें मानसिक बीमारियों का भी इलाज करना चाहिए. इस तरह की सोच ने दुनिया के विभिन्न हिस्सों में बदलाव लाए और असाइलम को मानसिक अस्पतालों के रूप में फिर से विकसित या पुनर्विकसित किया जाने लगा. नीलिमा डालमिया अधार ने कहा कि दमन सिंह की किताब असाइलम भारत में असाइलम पर विस्तृत और सावधानीपूर्वक दस्तावेज है. मानसिक स्वास्थ्य का गिरना ही असली महामारी है.