नई दिल्लीः समकालीन हिंदी साहित्य की विशिष्ट लेखिका ममता कालिया को उनके उपन्यास 'दुक्खम-सुक्खम' के लिए केके बिरला फाउंडेशन की ओर से साल 2017 के प्रतिष्ठित व्यास सम्मन से नवाजा गया. इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में आयोजित एक भव्य समारोह में गोवा की राज्यपाल और साहित्यकार मृदुला सिन्हा ने 27वां व्यास सम्मान, इसके तहत साढ़े तीन लाख रुपए की सम्मान राशि व प्रमाण पत्र दिया. सिन्हा जो कि समारोह की मुख्य अतिथि भी थीं, ने कहा कि यह उपन्यास भारतीय संस्कृति के मूल सूत्र सुख दुख को पकड़ कर लिखा गया है, इसीलिए मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश के मथुरा की पृष्ठभूमि पर आधारित होने के बावजूद यह सिर्फ मथुरा ही नहीं बल्कि पूरे देश के लिए है. किसी भी भाषा का व्यक्ति पढेगा, तो उसे लगेगा कि यह उसके गांव की कहानी है. इसमें दिखाया गया है कि एक परिवार में दादा-दादी और नाना-नानी जैसे बुजुर्गों का होना कितना जरूरी है. सच तो यह है कि   कथाकार ममता कालिया ने अपने स्वीकृति वक्तव्य में कहा कि 'दुक्खम-सुक्खम' एक संयुक्त परिवार के आधुनिकीकरण की कहानी है. इसका ताना-बाना बुनने के लिए इस लेखक को कभी समय से पीछे जाना पड़ा तो कभी समय से आगे निकलकर अपनी कल्पना को शब्दों में पिरोना पड़ा. उपन्यास में तीसरी पीढ़ी की किरदार मनीषा जहां पुरानी और नई पीढ़ी के बीच सेतु का काम करती रही, वहीं उसकी बहन प्रतिभा ने सारी रूढि़यों को तोड़कर बिंदास जीवन जीना चाहा. उपन्यास के विभिन्न किरदारों के बीच चलने वाले वैचारिक द्वंद को बखूबी प्रस्तुत करना ही इसकी खासियत थी. व्यास सम्मान चयन समिति के अध्यक्ष प्रोफेसर विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने उपन्यास के कुछ रोचक अंश पढ़कर सुनाए. उन्होंने कहा कि यह उपन्यास महात्मा गांधी के सत्याग्रह की पृष्ठभूमि पर लिखा गया है. आज भले ही नारी मुक्ति आंदोलन 'मी टू' तक पहुंच गया है, लेकिन इसकी शुरुआत गांधी जी ने दशकों पहले चरखे के माध्यम से कर दी थी. केके बिरला फाउंडेशन के निदेशक डॉ. सुरेश ऋतुपर्ण ने अतिथियों का स्वागत किया, तो डॉ. रेखा सेठी ने मंच संचालन किया.

 

हाल ही में व्यास सम्मान पर जागरण हिंदी से विशेष बातचीत में ममता कालिया ने कहा था कि लेखक पुरस्कार के लिए नहीं लिखता, पर उसे पाने से खुशी तो मिलती ही है. उनका कहना था कि इस उपन्यास को लेकर वह शुरू में काफी सशंकित थी कि आज के जमाने में उनकी दादी से जुड़ी कहानी को कौन पढ़ेगा. इसमें कोई आंदोलन, कोई उठापटक नहीं है. सीधी-सीधी सी कहानी है. किंतु उनके पति एवं प्रसिद्ध कहानीकार रवींद्र कालिया और वरिष्ठ कथाकार अमरकांत ने उन्हें समझाया था कि उपन्यास की यह शैली बिल्कुल सही है और इसे काफी पसंद किया जाएगा. वह मथुरा की रहने वाली हैं. दुक्खम-सुक्खम भी मथुरा के आसपास की ही कहानी है. उनके पति स्वयं एक अच्छे कथाकार रहे हैं. रवींद्र जी हमेशा कहते थे कि ममता की पृष्ठभूमि कल्चर से है और मेरी एग्रीकल्चर से. रवींद्र कालिया ने ही उन्हें हिंदी में लिखने के लिए प्रेरित किया था. दिसंबर में इस पुरस्कार की घोषणा के वक्त ममता कालिया ने कहा था कि उनके लिए यह दोगुनी खुशी की बात है क्योंकि इसी वर्ष हिंदी की वरिष्ठ लेखिका कृष्णा सोबती को ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला है. उन्होंने तब कहा था कि हिंदी में पिछले कुछ समय से महिलाओं द्वारा अपने बारे में खुलकर लिखा जाना एक अच्छा संकेत है. उनका कहना था कि यह महात्मा गांधी का ही प्रभाव था कि कई महिलाओं ने देश के स्वतंत्रता आंदोलन के समय रेशमी साड़ियों की जगह खादी की धोती पहनना शुरू कर दिया था. उन्होंने कहा कि महात्मा गांधी का महिलाओं पर क्या प्रभाव पड़ा, इस बारे में बहुत कम लिखा गया है. उन्होंने कहा कि यह नये किस्म का फेमिनिज्म है जिससे समाज में सकारात्मक विचार आते हैं.
याद रहे कि हिंदी साहित्य की जानी मानी साहित्यकार ममता का जन्म 2 नवंबर, 1940 को मथुरा में हुआ था. वह हिंदी और अंग्रेजी, दोनों भाषाओं में लिखती हैं. दिल्ली विविद्यालय से एमए अंग्रेजी की डिग्री लेने के बाद ममता मुंबई के एसएनडीटी विश्वविद्यालय में परास्नातक विभाग में व्याख्याता बन गईं.ममता वर्ष 1973 में वह इलाहाबाद के एक डिग्री कॉलेज में प्राचार्य नियुक्त हुईं और वहीं से वर्ष 2001 में अवकाश ग्रहण किया. ममता ने बेघर, नरक-दर-नरक, दुक्खम-सुक्खम, सपनों की होम डिलिवरी, कल्चर वल्चर, जांच अभी जारी है, निर्मोही, बोलने वाली औरत, भविष्य का स्त्री विमर्श समेत कई रचनाओं को कमलबद्ध किया है. उनके करीब 10 उपन्यास और 12 कहानी संग्रह आ चुके हैं. खास बात तो यह कि पुराने दौर की यह युवा लेखिका पूरी तरह से सक्रिय हैं, और सोशल मीडिया और साहित्यिक समारोहों में युवा लेखक-लेखिकाओं को उनकी रचनाओं औअर मुखरता को लेकर हमेशा प्रोत्साहित करती नजर आती हैं. शायद यही वजह है कि ममता कालिया को व्यास सम्मान मिलने की खबर मात्र से उन्हें बधाइयों का तांता लग गया था और साहित्य जगत में हर उम्र के रचनाकारों ने खुशी का इजहार किया था