मोतिहारी के चर्चित युवा कवि व शायर गुलरेज शहजाज़ ने सृजन की दुनिया में एक विशिष्ट मुकाम हासिल किया है। गुलरेज फिल्म मीडिया, रंगमंच और पत्रकारिता से भी गहरे सम्बद्ध रहे हैं। वे मोतिहारी नगर पर्षद के सदस्य भी हैं। बाकायदा चुनाव जीतकर वे वार्ड संख्या 4 के प्रतिनिधि बने हैं। उन्होंने जागरण हिंदी से साझा की दिल की बात
– घर का माहौल साहित्यिक था। मेरे दादा जी स्व० मौलाना सिद्दीक़ बेदिल का शुमार चम्पारण के उस्ताद शायरों में था। वह उर्दू,अरबी और फ़ारसी के विद्वान तो थे ही हिंदी और अंग्रेज़ी के भी अच्छे जानकार थे। पिता डॉ० अख़्तर सिद्दीक़ भी शायर हैं और उनके चार काव्य संकलन प्रकाशित हो चुके हैं। उनके ग़ज़ल संग्रह " बेतीशा" को उर्दू अकादमी , बिहार ने पुरस्कृत भी किया है। घर पर साहित्यिक लोगों की आवाजाही थी। बचपन से ही दादा हुज़ूर के साथ कार्यक्रमों में जाता रहा और वहीं से मेरे अंदर साहित्यिक शौक़-व-ज़ौक़ पैदा हुआ।
– पहली रचना 1989 में लिखी।
मुझे जिन लोगों ने प्रभावित किया उनमें प्रमुख हैं अपने दादा हुज़ूर मौलाना सिद्दीकी बेदिल, शहरयार, गुलज़ार, असद बदायूनी, और तफ़ज़ील अहमद।
– मेरी प्रकाशित कृतियां है : स्याही सूखने से पहले (उर्दू), आग पे रखी रात (देवनागरी) , कुदरत बेहुस्न नहीं हुई है, चम्पारन सत्याग्रह गाथा, भोजपुरी प्रबंध काव्य का इसी वर्ष हर्फ़ पब्लिकेशन से प्रकाशन। मैथिली काव्य संग्रह "युद्धक विरोध में बुद्धक प्रतिहिंसा" , हिंदी काव्य संग्रह "इस शहर के लोग' ,' गीतों से मुझको प्यार बहुत है' का उर्दू अनुवाद के और अश्विनी कुमार प्रदीप के काव्य संकलन का सम्पादन। मेरी अप्रकाशित कृतियों में है धाह (भोजपुरी कविता/गजल संकलन), अधूरी मिट्टी ( हिंदी प्रेम कविता संग्रह ), नारायणी के दुख ( भोजपुरी प्रबंध काव्य)। हिंदी की पत्र-पत्रिकाओं मसलन आजकल, वागर्थ, कथादेश, उर्दू की शायर, नया वरक़, जेहने जदीद, रंग, रोशनाई (पाकिस्तान) एवं भोजपुरी जिंदगी, आखर, भोजपुरी मैना सहित दर्जनों पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित हैं।
यदि हम अपने प्रदेश बिहार को देखें तो समकालीन साहित्यिक सकारात्मक और प्रगतिशीलता के साथ नित नए आयाम गढ़ता हुआ निरंतर आगे बढ़ रहा है। चाहे हम उर्दू की बात करें या हिंदी, भोजपुरी और मैथिली की। सब में बिहार का मज़बूत दखल है। इन भाषाओं के समकालीन साहित्य में बिहार को दरकिनार कर के कोई चर्चा पूरी नहीं हो सकती । मैं किसी भी परिधि में नहीं हूँ। आवारगी मेरा प्रिय कर्म है। मन की उंगलियां पकड़ के चलना मुझे सहज लगता है-
हर शख्स चल रहा था किसी दूसरे की चाल
मैंने तो अपने मन की हवा पांव से बांधी
मैं अपनी रचना में खुद को तलाश करता हूँ, खुद को गढ़ता हूँ और खुद को ही तोड़ता हूँ। मेरा ही शेर है-
पहाड़ों को हटाना चाहता हूं
हवा सा खिलखिलाना चाहता हूं
मैं अपने आप से बिछड़ा कहाँ पर
मैं खुद को याद आना चाहता हूं
दिमाग की बातें काम समझ में आती हैं। दिल के आईने में शक्ल देखता हूँ।