नई दिल्ली: साहित्य अकादमी ने प्रख्यात उर्दू शायर और गीतकार 'मजरूह सुल्तानपुरी की जन्मशतवार्षिकी' पर दो दिवसीय संगोष्ठी का शुभारंभ किया. संगोष्ठी के उद्घाटन वक्तव्य में प्रोफेसर गोपीचंद नारंग ने कहा कि मजरूह सुल्तानपुरी एक सच्चे, तरक्की पसंद और इंकलाबी शायर थे. उन्होंने अपने जीवन में अनेक उपेक्षाओं को सहा लेकिन अपनी बात कहने का फन नहीं बदला. प्रोफेसर गोपीचंद नारंग ने उनके जीवन से जुड़े बहुत से प्रसंगों को याद करते हुए बताया कि वे नज़्मों की उस प्राथमिकता के दौर में भी अपनी गज़लों और फ़िल्मी गीतों से अपनी बात सारे समाज के सामने रखते रहे. गज़लों को कितना भी हुस्न और माशूक से जोड़ा जाता रहा फिर भी वे अपने इंकलाब और आज़ादी के स्वर को अपने कलाम में पेश करते रहे. आरंभिक वक्तव्य में उर्दू परामर्श मंडल के संयोजक शीन काफ़ निज़ाम ने कहा कि सुल्तानपुर से अलीगढ़ और वहां से मुम्बई तक की उनकी यात्रा बेमिसाल है. उन्होंने आला और आसान दोनों तरह की शायरी बहुत ही उम्दा तरीके से की. हालांकि तरक़्क़ी पसंद लोग उस समय गज़ल के स्थान पर नज़्मों को प्राथमिकता दे रहे थे. लेकिन मजरूह ने अपनी ग़ज़लों से ज़िद की तरह प्यार बनाए रखा.
बीज वक्तव्य में अर्जुमंद आरा ने कहा कि सामाजिक और राजनीतिक उथल-पुथल के समय मजरूह सुल्तानपुरी ने विभिन्न आदर्शों के बीच उर्दू शायरी को महज मोहब्बत के सब्ज़ बागों से निकाल कर दुनिया के अन्य अँधेरे और उजले पहलुओं से भी जोड़ा. साथ ही, उन्होंने रूमानियत को भी नया रंग और ताज़गी दी. अध्यक्षीय वक्तव्य में साहित्य के उपाध्यक्ष माधव कौशिक ने कहा कि मजरूह सुल्तानपुरी ने मंच और सिनेमा के लिए लिखी गई अपनी शायरी में भाषाओं और विचारों का बेहद संतुलन रखा और दोनों ही माध्यमों के लिए उत्कृष्ट लेखन किया. कार्यक्रम के आरंभ में साहित्य अकादमी के सचिव के श्रीनिवासराव ने सभी का स्वागत करते हुए कहा कि मजरूह एक ऐसे शायर थे जिनके कलाम में समाज का दर्द झलकता था. उन्होंने ज़िंदगी को एक दार्शनिक के नज़रिये से देखा और उर्दू शायरी को नए आयाम दिए. उनके लिखे फ़िल्मी गीतों में भी एक नयापन और अपनापन महसूस किया जा सकता है. कार्यक्रम में उर्दू के कई प्रतिष्ठित साहित्यकार और लेखक तथा विश्वविद्यालयों के शोधार्थी उपस्थित थे. कार्यक्रम का संचालन साहित्य अकादमी के संपादक हिंदी अनुपम तिवारी ने किया.