नई दिल्ली: “वर्तमान में सभी भारतीय भाषाएं संकट में हैं. एक नई चुनौती अब सहभाषाओं की अस्मिता से भी है. अतः सभी भाषाओं के बीच संवाद जरूरी है, तभी सद्भावना का माहौल बनेगा.” हिंदी पखवाड़े के दौरान मीडिया विशेषज्ञ राहुल देव ने यह बात साहित्य अकादेमी द्वारा ‘हिंदी और अन्य भारतीय भाषाएं‘ विषयक परिसंवाद के उद्घाटन सत्र के दौरान बतौर मुख्य अतिथि कही. उन्होंने कहा कि भाषा का संकट कोई मामूली संकट नहीं है. यह सभ्यता का संकट है. पाठकों की बढ़ती कमी के कारण भाषाएं अपने परिवेश में ही मर रही है. स्वागत वक्तव्य में साहित्य अकादेमी के सचिव के श्रीनिवासराव ने कहा कि हिंदी सभी भारतीय भाषाओं के बीच संवाद की पृष्ठभूमि तैयार करती है, जोकि भारत जैसे बहुभाषी देश में संभव है. संपूर्ण भारतीय साहित्य के बीच भाषाई एकता का पारस्परिक आंतरिक संबंध है, जो इसे और पठनीय बनाता है. आर रमेश आर्य ने कहा कि भाषा संस्कृति का पर्याय है. अतः हमें इसमें आदिवासी भाषाओं के शब्दों को संरक्षित करना होगा, क्योंकि वहां पर भी भारतीय संस्कृति के अनेकों तत्त्व संरक्षित हैं. भारतीय भाषाओं के बीच सौहार्द की स्थिति के बाद ही हिंदी राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार की जा सकेगी. अध्यक्षीय वक्तव्य में डा राममोहन पाठक ने कहा कि हिंदी संस्कार की भाषा के साथ ही समाधान की भाषा भी है. अतः हिंदी भाषा की सनातन परंपरा की रक्षा जरूरी है. उन्होंने भाषा की शुद्धता के लिए समय-समय पर इसका परिमार्जन करने की आवश्यकता पर भी जोर दिया. परिसंवाद का प्रथम सत्र प्रेमपाल शर्मा की अध्यक्षता में संपन्न हुआ, जिसमें सुधांशु चतुर्वेदी ने मलयाळम् भाषा, रजनी बाला ने पंजाबी भाषा और एनी राय ने ओड़िआ भाषा और हिंदी के बीच के अंतर्संबंधों पर अपने आलेख प्रस्तुत किए. सभी ने अपनी भाषा में हिंदी की परंपराओं और शब्द भंडार के बीच आपसी समानता पर बात की.
इस सत्र के वक्ताओं ने कहा कि अनुवाद ही एक ऐसा सेतु है, जिनसे इन सब भाषाओं और हिंदी के बीच की कड़ी को और अच्छे ढंग से जोड़ा जा सकता है. सत्र के अध्यक्ष प्रेमपाल शर्मा ने अपने बच्चों को मातृभाषाएं पढ़ने-पढ़ाने की आवश्यकता पर बल दिया. द्वितीय सत्र पूरन चंद टंडन की अध्यक्षता में संपन्न हुआ, जिसमें पापोरी गोस्वामी ने असमिया, वर्षा दास ने गुजराती, मनोज माईणकर ने मराठी एवं ए कृष्णाराव ने तेलुगु भाषा और हिंदी के संबंधों पर अपने विचार व्यक्त किए. पापोरी गोस्वामी ने शंकरदेव के उदाहरण से बताया कि कैसे उन्होंने ब्रज और कैथी भाषा के संयोग से ब्रजावली भाषा में रचनाएं कर असम में हिंदी की पृष्ठभूमि तैयार की. मनोज माईणकर ने महाराष्ट्र के हिंदी लेखकों बाबूराव विष्णु पराड़कर, मुक्तिबोध एवं जयंत नार्ळेकर का उल्लेख करते हुए बताया कि हिंदी-मराठी का परस्पर संबंध बहुत लंबे समय से है. वर्षा दास ने कहा कि गुजराती भाषा के अनेक रचनाकार हिंदी में लगातार लिखते रहे हैं और अनूदित भी होते रहे हैं, जिनमें गोवर्धनलाल त्रिपाठी, माणिक लाल मुंशी और वर्तमान में रघुवीर चौधरी, सितांशु यशश्चंद्र प्रमुख हैं. ए कृष्णाराव ने तेलुगु पर संस्कृत के गहरे प्रभाव की चर्चा करते हुए कहा कि तेलुगु में भागवत एवं रामकथाएं सबसे पहले अनूदित हुई हैं. अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में पूरन चंद टंडन ने कहा कि आज हुए गंभीर विचार-विमर्श के बाद हम उम्मीद कर सकते हैं कि भारतीय भाषाओं में सौहार्द की कोई कमी नहीं है बल्कि पिछले कुछ वर्षों में इनके बीच आवाजाही तेजी से हुई है. कार्यक्रम में कई महत्त्वपूर्ण हिंदी विशेषज्ञ लेखक और अनुवादक विमलेश कांति वर्मा, रीतारानी पालीवाल, कल्लोल चक्रवर्ती, अशोक ओझा, हरिसुमन बिष्ट, राजकुमार गौतम आदि उपस्थित थे. संचालन और औपचारिक धन्यवाद ज्ञापन अकादेमी के उपसचिव देवेंद्र कुमार देवेश ने किया.