भोपालः भारत भवन ने पिछले दिनों प्रकृति और संस्‍कृति विषय पर कला, संगीत और साहित्‍यिक विमर्श का सप्‍ताह भर का आयोजन किया. इस सिलसिले में परंपरागत चित्रांकन शिविर और जनजातीय चित्र कृतियों की प्रदर्शनी से संस्‍कृति और प्रकृति समारोह का शुभारंभ हुआ. अपने स्वागत वक्‍तव्‍य में भारत भवन के न्‍यासी सचिव शिव शेखर शुक्‍ला ने प्रकृति और संस्‍कृति को एक दूसरे का पूरक बताया और कहा कि प्रकृति ने मनुष्य को जो जीवन का उपहार दिया है उसके प्रति उसे सदैव कृतज्ञ होना चाहिए. वैचारिक सत्र में संस्‍कृति और प्रकृति के अन्‍तस्‍संबध में ललित निबंधकार नर्मदाप्रसाद उपाध्‍याय और मनोज श्रीवास्‍तव ने बहुरूपी प्रकृति की देन को याद किया तथा संस्‍कृति से उसके संबंधों की ललित व्‍याख्‍या की. अध्‍यक्षता करते हुए संस्‍कृत के जाने-माने विद्वान राधा वल्‍लभ त्रिपाठी ने कल्‍ट, कल्‍चर, प्रकृति और संस्‍कृति की व्‍यापक व्‍याख्‍या की तथा परंपरा से प्रकृति के प्रति ऋषियों वेदों पुराणों इत्‍यादि में व्‍यक्‍त प्रकृति के प्रति उदगारों की रोशनी में प्रकृति के अवदान को रेखांकित किया. कविता और कहानी सत्र में लीलाधर जगूड़ी, प्रयाग शुक्‍ल और आनंद सिंह ने अपनी कविताएं पढ़ीं तथा उर्मिला शिरीष और कैलाश वानखेड़े ने कहानियां सुनाईं. विचार सत्र की अगली कड़ी में सिरेमिक कलाकार शंपा शाह व संगीता गुंदेचा ने संस्‍कृति में आरण्‍यक की भूमिका पर प्रकाश डाला.

हमारी संस्कृति का आरण्यक अध्याय के अंतर्गत आयोजित इस आख्यान के दौरान संगीता गुंदेचा ने संस्‍कृत के प्राच्‍य ग्रंथों, उपनिषद, ब्राह्मण व आरण्यक इत्‍यादि में इस विषय को गहरे धरातल पर व्‍याख्‍यायित किया. अध्‍यक्षयीय संबोधन में जनजातीय व लोक संस्‍कृति के विरल अध्‍येता कपिल तिवारी ने प्रकृति और संस्‍कृति के मूल तत्‍वों को विश्‍लेषित किया. नवान्‍न और कलाएं विषयक विचार सत्र में ओम निश्‍चल, विनय उपाध्‍याय, शशि कुमार पांडे एवं श्रीरामपरिहार ने अपने विचार व्‍यक्‍त किए. परिहार ने निमाण लोकगीतों में नवान्‍न के उत्‍सवों तथा पूरे भारत में प्रकृति के इस उत्‍सव की मार्मिक व्‍याख्‍या की जिसे सुन कर लोगों की आंखें भींग उठीं. उन्‍होंने बीच-बीच में कुछ निमाणी लोकगीत भी सुनाए. हिंदी आलोचक और कवि डॉ ओम निश्‍चल ने अपने व्‍याख्‍यान में प्रकृति और संस्‍कृति के विभिन्‍न पहलुओं को उद्घाटित करते हुए कहा कि नये अन्‍न की आहट के साथ कलाओं का रिश्‍ता रहा है. अन्‍न देह की भूख का समाधान है, तो कलाएं मन की भूख का. कहा गया है जैसा अन्‍न वैसा मन. नये की खुशबू ही अलग होती है. निश्‍चल का कहना था कि नवान्‍न नए अन्‍न का परिचायक तो है ही यह नये का आवाहन भी है. नवान्‍न में नयेपन का बोध भी शामिल है. निराला ने तो अपनी मशहूर वाणी वंदना में नव शब्‍द का बारंबार प्रयोग कर नये के प्रति कवि की प्रतिश्रुति का इज़हार ही किया था. इस तरह नवान्‍न हमारी संस्‍कृति में जहां नये अन्‍न के स्‍वागत का संवाहक है, उसी तरह कविता व कलाओं में नवान्‍न का अर्थ भी नये का स्‍वागत है. यह अच्‍छी बात है कि नये अन्‍न से लेकर नये विचारों, नई कल्‍पनाओं को काव्‍य कला सहित अन्‍य ललित कलाओं में मूर्त करने का काम कवियों, कलाकारों, संगीतकारों ने बहुत मन से किया है.