गद्य प्रधान कविता के जनक, भारतेंदु युग की शान, हिंदी गद्य साहित्य के निर्माताओं में से एक पंडित बाल कृष्ण भट्ट की पुण्यतिथि पर उनके योगदान को याद किया जाना बेहद जरूरी है. दसवीं तक स्कूली शिक्षा के बाद भट्ट जी ने संस्कृत, हिंदी अंग्रेज़ी, उर्दू, फारसी भाषाओं पर खासा अधिकार कर लिया और व्यापार व शिक्षा का कार्य छोड़ साहित्य की तरफ मुड़ गए. भारतेंदु हरिश्चंद्र के प्रभाव से भट्ट ने पूरा जीवन साहित्य सेवा में लगाने का संकल्प लिया और यही किया भी. वह एक सफल पत्रकार, नाटक कार और निबंधकार थे. उन्होंने हिंदी-प्रदीप नामक मासिक पत्र निकाला और इसके संपादक बने. तीन से भी अधिक दशकों तक उन्होंने इस पत्र के माध्यम से हिंदी को उसके आधुनिक स्वरूप को गढ़ने में मदद की. उनके निबंध इसका गवाह हैं. हालांकि उन्होंने पत्र, नाटक, काव्य, निबंध, लेख, उपन्यास, अनुवाद विभिन्न रूपों में हिंदी की अनन्य सेवा की और उसे धनी बनाया. शायद ही कोई ऐसा विषय हो, जिसपर उन्होंने नहीं लिखा.
बाल कृष्ण भट्ट के निबंध सदा मौलिक और भावना पूर्ण होते थे. भट्ट जी हिंदी की सेवा में इतने व्यस्त रहते थे कि उन्हें पुस्तकें लिखने के लिए अवकाश ही नहीं मिलता था. इसके बावजूद उन्होंने 'सौ अजान एक सुजान', 'रेल का विकट खेल', 'नूतन ब्रह्मचारी', 'बाल विवाह' तथा 'भाग्य की परख' आदि दस-बारह पुस्तकें लिख ही लीं. उनकी भाषा के लालित्य के उदाहरण के लिए 'हिंदू जाति का स्वाभाविक गुण' नामक निबंध का यह आरंभिक अंश देखिए. “गीता में भगवान कृष्णचंद्र ने गुण कर्म के विभाग पर बड़ा जोर दिया और सिद्ध कर दिया है कि मानव जाति का बनना बिगड़ना सत्व रज तम इन गुण और सात्विकी राजसी तामसी इन तीन प्रकार के कर्म पर निर्भर है. इन्हीं गुण कर्म के विभाग के अनुसार हमारा यह लोक और परलोक दोनों बनता और बिगड़ भी जाता है. इन्हीं बातों पर लक्ष्य कर आज हम हिंदुओं का स्वाभाविक गुण अपने पढ़ने वालों को दरसाया चाहते हैं. इनमें सन्देह नहीं हिंदू जाति में अब भी अधिकतर लोगों में स्वाभाविक सरलता सिधाई आर्जव आदि देख; या चाहे यों कहिये इनमें जैसा गाऊदीपन है; उनसे यही बोध होता है कि स्वभावत: इनकी सात्विक प्रकृति है.” इस महान हिंदीसेवी को नमन.