नई दिल्ली: नेहरू मेमोरियल संग्रहालय एवं पुस्तकालय, तीन मूर्ति भवन ने अपने सार्वजनिक व्याख्यान श्रृंखला के तहत 'साझा सांस्कृति विरासत, कुछ अनदेखे, अदृश्य सत्य, सन्दर्भ: मेवात' विषय पर एक चर्चा आयोजित की और वक्ता के रूप में सुपरिचित उपन्यासकार भगवानदास मोरवाल को आमंत्रित किया. मोरवाल 'काला पहाड़' और 'बाबल तेरा देस में' जैसे उपन्यासों से राजधानी से सटे मेवात इलाके की सांस्कृतिक विरासत के बारे में हिंदी के पाठकों को काफी हद तक परिचित करा चुके हैं, पर उनके मुताबिक किसी गंभीर बौद्धिक मंच से मेवात की आवाज़ को पहली बार उठाया गया. उनका दावा है कि उन्होंने मेवात और मेवातियों के बारे में जो नकारात्मक धारणा बनी हुई है, उसे अपने व्याख्यान के माध्यम से दूर करने की कोशिश की. मोरवाल ने अपने व्याख्यान में मेवातियों द्वारा मुग़ल-पठानों से लेकर अंग्रेजों से ली गयी टक्कर के अलावा मेवात के उन सांस्कृतिक और लोक-पक्षों पर खुल कर चर्चा की, जिनसे हमारा हिंदी समाज पूरी तरह अपरिचित है.


व्याख्यान के दौरान श्रोताओं ने मोरवाल से यह भी जानने की कोशिश की कि क्या भारतीय इस्लाम की कोई अवधारणा हो सकती है? मोरवाल का जवाब था, 'हां, मेवात का इलाका इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है, जहां किसी भी तरह की कट्टरता पर साझी विरासत हावी है. उन्होंने कई उद्धरणों के साथ बताया कि बदलाव और दबाव की तमाम कोशिशों के बावजूद मेवात का इतिहास सामाजिक समरसता का है. यही वजह है कि धार्मिक कट्टरता के बढ़ने वाले दौर में भी मेव लोगों ने मजहबी कट्टरता नहीं अपनाई. मेव इलाकों में रामलीला उत्सव के पोस्टरों पर निवेदक के रूप में आधे से अधिक मुस्लिम नामों का देखा जाना आम है. उनका कहना था कि जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय जैसे संस्थानों में मेवात के मुस्लिम समाज  को लेकर जो नकारात्मक छवि और अवधारणा बनी हुई है, वह अब भी कायम है. पर इससे मेव लोगों को फर्क नहीं पड़ता. क्योंकि हमारा समाज केवल धर्म से ही नहीं बनता. उनका तर्क था कि ऐसे आयोजनों से किसी क्षेत्र विशेष और उसके रहवासियों के बारे में बनी धारणाओं और अवधारणाओं को दूर करने में बड़ी मदद मिलती है. उन्होंने नेहरू संग्रहालय स्मारक एवं पुस्तकालय की इस बात के लिए तारीफ की कि उसने विश्वविख्यात बौद्धिक मंच पर मेवात जैसे सांस्कृतिक रूप से समृद्ध पर अलक्षित समाज को भी अपनी चर्चा का केंद्र बनाया.