नई दिल्लीः यह शाम राजधानी के कला, रंगमंच और साहित्यिक हलके में किसी उत्सव से कम नहीं थी. मजहब, जेंडर और क्षेत्र की दीवार यहां ढह चुकी थी, और सबके बीच उत्सुकता थी एक चर्चित उपन्यास की रंगमंचीय प्रस्तुति में शिरकत होने का. राजधानी के एलजीटी ऑडिटोरियम में कॉलेजिएट ड्रामा सोसाइटी ने उपन्यासकार भगवानदास मोरवाल के चर्चित उपन्यास 'हलाला' पर आधारित इसी नाम से आयोजित नाट्य-शो रखा, और एक ही दिन में इस नाटक का दो बार मंचन हुआ. भारी बरसात के बीच भी दोनों शो काफी सफल रहे और इसके प्रस्तुतकर्ताओं ने खुश होकर इसे दूसरे शहरों में भी खेलने का फैसला किया. 'काला पहाड़' और 'रेत' जैसे उपन्यासों से कथा-जगत में धूम मचाने वाले भगवानदास मोरवाल का 'हलाला' उपन्यास भी खूब चर्चित है, पर इसकी नाट्य प्रस्तुति भी इतनी सफल होगी कि इसमें मेवात इलाके के ग्रामीणों से लेकर नगर का आभिजात्य, बौद्धिक वर्ग भी इस भारी संख्या में जुटेगा, इसका अनुमान किसी को न था. 'हलाला' के नाट्यरुपांतरण से गदगद लेखक भगवानदास मोरवाल ने नाट्य-प्रस्तुति को वक्त की जरूरत बताते हुए कहा कि नाटक डेढ़ घंटे में ही आपको वह दिखा दे रहा, जो उपन्यास के 150 पृष्ठों को पढ़ने के बाद पता चलता. इसीलिए उपन्यास में जहां हम गहराई से जाकर उसके मर्म को समझते हैं, नाटक में कम समय में उन्हीं चीजों को कहने, गढ़ने की चुनौती होती है. मेरे उपन्यास और इस नाटक में 'हलाला' के नाम पर समाज के एक हिस्से में स्त्रियों के साथ हो रहे शोषण की बात इतने बेहतर ढंग से रखी गई है कि अब इस पर फिल्म बनाने की भी बात हो रही है.

'हलाला' नाटक की सफलता के लिए उसके कलाकारों और निर्देशक रवि तनेजा का आभार जताते हुए भगवानदास मोरवाल उन चुनौतियों का जिक्र करना नहीं भूलते, जो इस उपन्यास के नाट्य-प्रस्तुति के दौरान घटी. वह बताते हैं कि इस नाटक के अमूमन सभी पात्र दिल्ली के थे, जिनके लिए मेवात के परिवेश को, वहां की भाषा को समझना काफी चुनौती पूर्ण था. इसीलिए उनके रिहर्सल के दौरान मैं हर दिन गया. उन सब को डायलॉग के हिसाब से मेवाती भाषा सिखाना, उस परिवेश को महसूस कराना काफी सुखकर था. 'हलाला' की नाट्य-प्रस्तुति पर दैनिक जागरण को दिए एक साक्षात्कार में मोरवान ने कहा था कि 'हलाला' सिर्फ मेवात के परिवेश से उपजी कोई रीति या समस्या भर नहीं है. यह तो मुस्लिम समुदाय की हर स्त्री की व्यथा-कथा है. मेवात, जहां मैं पला-बढ़ा वहां ऐसी बहुत सी घटनाओं को घटते काफी नजदीक से देखा-महसूस किया है. 'हलाला' बजरिए नजराना सीधे-सीधे पुरुषवादी धार्मिक सत्ता और एक पारिवारिक-सामाजिक समस्या को मजहब का आवरण ओढ़ा, स्त्री के दैहिक शोषण को बचाए रखने की कोशिश का आख्यान भर है. यह खुशी की बात है कि नियाज, डमरू, नजराना जैसे पात्रों से स्त्री-पुरुष के आदिम संबंधों, लोक के गाढ़े रंगों को अब न केवल रंगमंच उभार रहा है बल्कि सरकार भी इस पर संज्ञान ले रही है. फिलहाल तत्काल तलाक पर हल निकला है तो 'हलाला' पर भी जरूर हल निकलेगा।