जागरण संवाददाता, नई दिल्ली- हिंदी की वरिष्ठ कथाकार ममता कालिया का मानना है कि एक बुरी किताब पाठक की हत्या कर देता है। पाठक उसको पढ़ने के बाद पुस्तकों से विमुख हो जाता है। यह बेहद जरूरी है कि लेखक अपनी किताब में पठनीयता और विश्वसनीयता दोनों बरकरार रखे। लेखक को कभी भी इस पर किसी तरह का समझौता नहीं करना चाहिए। ममता कालिया दैनिक जागरण के ‘हिंदी हैं हम’ के ‘जागरण वार्तालाप’ में बात कर रही थीं। ममता कालिया ने दैनिक जागरण के साथ अपने संबंधों को भी साझा किया। उन्होंने बताया कि जब वो इंदौर में रहकर बी ए प्रथम वर्ष में पढ़ाई कर रही थीं तब वो कविताएं लिखा करती थीं, जो अकविता से प्रभावित थी। प्रत्येक सप्ताह वो दैनिक जागरण में अपनी कविताएं भेजा करती थीं और जहां वो छप जाया करती थी। उन्हीं दिनों नईदुनिया में भी उनकी रचनाएं छपा करती थीं। उन्होंने बताया कि तब दैनिक जागरण के संपादक से उनका परिचय नहीं था,वो कविताएं भेज दिया करती थीं। उन्होंने बताया कि एक बार दीवाली के अवसर पर दैनिक जागरण का विशेषांक निकाल रहा था तो उनके पास संपादक की चिट्ठी आई कि कोई कहानी भेजिए। तब तक वो कहानी नहीं लिखती थीं। उन्होंने कहानी लिखी और दैनिक जागरण को भेज दी। ममता कालिया के मुताबिक वो उनकी पहली प्रकाशित कहानी थी। साथ ही उन्होंने ये भी जोड़ा कि तब कहानी के पारिश्रमिक के तौर पर उनको दस रुपए मिले थे जिससे उनको बहुत प्रसन्नता हुई थी।
जागरण वार्तालाप में वो राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘जीते जी इलाहाबाद’ पर चर्चा कर रही थीं। उन्होंने कहा कि ‘रवि कथा’ लिखने के बाद उनको लगा कि इसमें तो आधा ही शहर आया है और बहुत कुछ छूट गया है। रवि (रवीन्द्र कालिया) के अलावा भी बहुत सारे साथी लेखक उस शहर में थे जिनके साथ रहते थे, बतियाते थे, दोस्ती करते थे और एक दूसरे से स्पंदित होते थे। वो सारा कुछ वो रवि कथा में नहीं लिख पाई थी। जब रवि कथा लिख रही थी तो उनको लगा था कि इसका एक सीक्वल होना चाहिए। इसका एक क्रमश: होना चाहिए। जब जीते जी इलाहाबाद लिख लिया तो उनके अंदर एक और क्रमश: पैदा हो गया । इन दिनों एक नई किताब लिखनी शुरु कर दी है जिसका नाम है शेष कथा। ममता कालिया के मुताबिक कहानी कभी खत्म नहीं होती है वो हमेशा चलती रहती है। हर पुस्तक का एक एक क्रमश: होता हैऔर लेखक के अंदर ये क्रमश: चलता रहता है। जब तक ये चलता रहता है तबतक लेखक की रचनात्मकता बनि रहती है। उन्होंने बातचीत के क्रम में ये भी बताया कि इलाहाबाद (अब प्रयागराज) से अबतक नाता खत्म नहीं हुआ है। किसी ना किसी रूप में उस शहर से जुड़ी हुई हैं। उन्होंने ये भी स्वीकार किया कि जब वो जीते जी इलाहाबाद लिख रही थीं तो इस बात की बिल्कुल भी चिंता नहीं थी कि इसको पढ़कर कौन से लेखक खुश होगा या कौन नाराज होगा। उन्होंने कहा कि जैसे अमरूद का पूरा आस्वाद लेने के लिए हमें बीज समेत समूचा फल खाना होता है, शहर का आस्वाद लेने के लिए उसमें लंबे समय तक रमना होता है।
बातचीत के क्रम में ममता कालिया ने एक बेहद दिलचस्प संस्मरण भी सुनाया। लेखक उपेन्द्र नाथ अश्क के बेटे नीलाभ की शादी तय हुई थी। उनकी पहली शादी सुलक्षणा भटनागर से हुई थी। जब शादी तय हो गई तो एक दिन अश्क जी ने कहा कि लोग किराए की गाड़ी में बहू को अपने घर लेकर आते हैं, जबकि उनके पास अपनी कार नहीं होती है। सबकुछ बहुत बनावटी लगता है। पिता के इतना कहते ही नीलाभ ने फौरन उनसे सहमति जता दी। उपेन्द्र नाथ अश्क ने कहा कि वो तो रिक्शे में चलते हैं और अपनी बहू को भी रिक्शे में लेकर घर आना चाहते हैं। नीलाभ पक्के यार थे रवीन्द्र और ज्ञानरंजन के। तय हुआ कि शादी के बाद नीलाभ की पत्नी रिक्शे में घर आएगी। ज्ञानरंजन ने कहा कि नीलाभ और उसकी पत्नी जिस रिक्शे में घर आएंगी उसको वो चलाएंगे। ज्ञानरंजन और रवीन्द्र कालिया ने दो रिक्शेवाले से रिक्शा लिया। उसको पैसे दिए। नीलाभ शादी करके इलाहाबाद पहुंचे। रेलवे स्टेशन पर उनको और उनकी पत्नी को ज्ञानरंजन ने अपने रिक्शे पर बिठाया और कौशल्या जी और उनकी एक रिश्तेदार को रवीन्द्र कालिया ने अपने रिक्शे पर बिठाया। रेलवे स्टेशन से लेकर खुसरो बाग तक के अश्क जी के घर तक ज्ञानरंजन और रवीन्द्र कालिया ने रिक्शा चलाया। जब वो घर पहुंचे तो अश्क जी बहुत प्रसन्न हुए। जागरण वार्तालाप में ममता कालिया ने इस तरह के कई संस्मरण सुनाए। एक बेहद दिलचस्प किस्सा नामवर सिंह से जुड़ा सुनाया। अपनी भाषा हिंदी को समृद्ध करने के लिए दैनिक जागरण का उपक्रम है हिंदी हैं हम जिसके अंतर्गत जागरण वार्तालाप का आयोजन होता है। इसमें हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के लेखक से उनकी नवीनतम कृति पर संवाद होता है।