नई दिल्लीः प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इतने व्यस्त रहते हैं कि उनसे किताबों को पढ़ने की उम्मीद करना बेमानी है, पर वह न केवल पुस्तकों के लिए वक्त निकाल रहे, बल्कि जनता को भी इन्हें पढ़ने के लिए प्रेरित कर रहे. अभी अपने दूसरे कार्यकाल में 'मन की बात' कार्यक्रम के पहले प्रसारण में भी उन्होंने पुस्तक संस्कृति को बढ़ावा देने वाली कई बातें कहीं. उन्होंने कहा, "मेरे प्यारे देशवासियो, आपने कई बार मेरे मुंह से सुना होगा, 'बुके नहीं बुक', मेरा आग्रह था कि क्या हम स्वागत-सत्कार में फूलों के बजाय किताबें दे सकते हैं. तब से काफ़ी जगह लोग किताबें देने लगे हैं. मुझे हाल ही में किसी ने 'प्रेमचंद की लोकप्रिय कहानियाँ' नाम की पुस्तक दी. मुझे बहुत अच्छा लगा. हालांकि, बहुत समय तो नहीं मिल पाया, लेकिन प्रवास के दौरान मुझे उनकी कुछ कहानियाँ फिर से पढ़ने का मौका मिल गया. प्रेमचंद ने अपनी कहानियों में समाज का जो यथार्थ चित्रण किया है, पढ़ते समय उसकी छवि आपके मन में बनने लगती है. उनकी लिखी एक-एक बात जीवंत हो उठती है. सहज, सरल भाषा में मानवीय संवेदनाओं को अभिव्यक्त करने वाली उनकी कहानियाँ मेरे मन को भी छू गईं. उनकी कहानियों में समूचे भारत का मनोभाव समाहित है. जब मैं उनकी लिखी नशानाम की कहानी पढ़ रहा था, तो मेरा मन अपने-आप ही समाज में व्याप्त आर्थिक विषमताओं पर चला गया. मुझे अपनी युवावस्था के दिन याद आ गए कि कैसे इस विषय पर रात-रात भर बहस होती थी. जमींदार के बेटे ईश्वरी और ग़रीब परिवार के बीर की इस कहानी से सीख मिलती है कि अगर आप सावधान नहीं हैं तो बुरी संगति का असर कब चढ़ जाता है, पता ही नहीं लगता है."
प्रधानमंत्री ने आगे कहा, "दूसरी कहानी, जिसने मेरे दिल को अंदर तक छू लिया, वह थी ईदगाह’, एक बालक की संवेदनशीलता, उसका अपनी दादी के लिए विशुद्ध प्रेम, उतनी छोटी उम्र में इतना परिपक्व भाव. 4-5 साल का हामिद जब मेले से चिमटा लेकर अपनी दादी के पास पहुँचता है तो सच मायने में, मानवीय संवेदना अपने चरम पर पहुँच जाती है. इस कहानी की आखिरी पंक्ति बहुत ही भावुक करने वाली है क्योंकि उसमें जीवन की एक बहुत बड़ी सच्चाई है, 'बच्चे हामिद ने बूढ़े हामिद का पार्ट खेला था – बुढ़िया अमीना, बालिका अमीना बन गई थी.' ऐसी ही एक बड़ी मार्मिक कहानी है 'पूस की रात'. इस कहानी में एक ग़रीब किसान जीवन की विडंबना का सजीव चित्रण देखने को मिला. अपनी फसल नष्ट होने के बाद भी हल्दू किसान इसलिए खुश होता है क्योंकि अब उसे कड़ाके की ठंड में खेत में नहीं सोना पड़ेगा. हालांकि ये कहानियाँ लगभग सदी भर पहले की हैं लेकिन इनकी प्रासंगिकता, आज भी उतनी ही महसूस होती है. इन्हें पढ़ने के बाद, मुझे एक अलग प्रकार की अनुभूति हुई." प्रधानमंत्री ने इसके बाद केरल के अक्षरा ग्रंथालय और गुजरात के वांचे अभियान का जिक्र करते हुए देशवासियों से आग्रह किया कि 'गुगल गुरु' के युग में भी अपने दैनिक जीवन में पुस्तकों को स्थान अवश्य दें. प्रधानमंत्री की लोकप्रियता को देखते हुए उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले दिनों में पुस्तक संस्कृति को बढ़ावा देने में उनकी यह अपील खासा सकारात्मक योगदान करेगी.