प्रेमचन्द सप्ताह ( 31जुलाई- 6अगस्त) के अवसर पर आयोजित सेमिनार
प्रगतिशील लेखक संघ, पूर्णियाँ और उच्च विद्यालय बायसी के संयुक्त तत्वावधान में प्रेमचन्द सप्ताह ( 31जुलाई- 6 अगस्त) के अवसर पर ” प्रेमचन्द: आज का समाज और हमारा दायित्व ” विषय पर सेमिनार का आयोजन किया गया।
ज्ञातव्य हो प्रगतिशील लेखक संघ , पूर्णियाँ ने प्रेमचंद माह के अवसर पर ‘चलो गांव की ओर‘ और ‘साहित्य की नई पौध तैयार करो‘ के अपने निर्णय के आलोक में दूसरी कड़ी के रुप में बायसी (गांँव) के बच्चों (उच्च विद्यालय, बायसी) के बीच उक्त कार्यक्रम का आयोजन किया।
कार्यक्रम की अध्यक्षता विद्यालय के प्रधानाध्यापक मो० मरगूब ने की।
सेमिनार का उदघाटन करते हुए बिहार प्रलेस के प्रांतीय उपाध्यक्ष देव आनन्द ने कहा ” प्रेमचंद ही पहले साहित्यकार थे, जिन्होंने साहित्य को राजा महाराजाओं के रंग महल से निकालकर आम आदमी के बीच लाकर खड़ा कर दिया। पहली बार प्रेमचन्द ने ही कथा- कहानियों -उपन्यासों में नायको का चरित्र बदला। अब उपन्यास के नायक राजा महाराजा ना होकर घीसू – माधव, होरी-धनिया, गोबर-झुनिया हुए। उन्होंने साहित्य के सौंदर्य की कसौटी को बदल डाला।“
प्रोफेसर देव नारायण पासवान देव ने कहा ” प्रेमचन्द उस समय लिखना शुरू किया था जब आम आवाम किस्सा तोता मैना , बैताल पच्चीसी , सिंहासन बत्तीसी, अय्यारी ,जादू टोना और चंद्रकांता जैसे उपन्यास से मन बहलाव करता था। गरीबी -मुफलिसी , शोषण- अनाचार और अत्याचार को दैवीय – योग मानता था। प्रेमचन्द की रचनाओं ने संघर्ष चेतना का मशाल जलाया“
पूर्णिया प्रगतिशील लेखक संघ की जिला सचिव नूतन आनन्द ने कहा ” प्रेमचन्द का रचना संसार सामाजिक विषमता, यथास्थितिवाद, भाग्यवाद के खिलाफ मानवीय गुणों के तमाम तत्वों से अभिषिक्त हैं और प्रगतिकामी दृष्टि से ओत-प्रोत हैं।“
विवेकानंद विवेक ने अपने संबोधन में कहा ” प्रेमचंद ने साहित्य में किसानों की समस्या को अंतर्वस्तु बनाया।” मृणाल महिनाथपुरी का कहना था “प्रेमचंद की रचनाओं में स्वतंत्रता पूर्व की सामाजिक परिस्थिति का उल्लेख है।“
अपने अध्यक्षीय संबोधन में मोहम्मद मरगूब ने हिंदी तथा उर्दू दोनों साहित्य में प्रेमचन्द के अवदानों की विशेष चर्चा की।
अन्य वक्ताओं में बंकटेश्वर नाथ, राम पदारथ पाठक, मोहम्मद उस्मान, मो० शमीम, मोहम्मद यासीन, मुकेश कुमार, अभिषेक कुमार, सकलेन रजा, काजी गुलाम सरोवर, मोनाजिर आलम ने भी अपने विचार रखे।
“कोई अपनी खुशी के लिए गै़र की/रोटियांँ छीन ले हम नहीं चाहते/छींट कर थोड़ा चारा कोई उम्र की/हर खुशी बीन ले हम नहीं चाहते/वह किसी के लिए मखमली बिस्तरा/और किसी के लिए एक चटाई ना हो/इसलिए राह संघर्ष की हम चुनें/जिंदगी आँसुओं में नहाई न हो/शाम सहमी ना हो ,रात हो ना डरी/भोर की आंँख भी डबडबाई न हो।“
आयोजन में खासी संख्या में साहित्यकारों , संस्कृतिकर्मियों , बुद्धिजीवियों की उपस्थिति थी।