नई दिल्लीः काशी हिंदू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर प्रभाकर सिंह के सहयोग से वाणी प्रकाशन की डिजिटल शिक्षा श्रृंखला के तहत 'हिंदी साहित्य का इतिहास: अध्ययन की नयी दृष्टि, विचारधारा और विमर्श' व्याख्यानमाला जारी है. इस व्याख्यानमाला के तहत हिंदी के जानेमाने लेखक, आलोचक, विद्वान प्राचार्य अपने अपने वक्तव्य रख रहे हैं. इसी क्रम में तेरहवाँ व्याख्यान 'प्रवासी साहित्य लेखन और हिंदी' पर हुआ. इस विषय पर व्याख्यान दिया कवि व आलोचक चन्द्रकला त्रिपाठी ने. त्रिपाठी काशी हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी की प्राध्यापक व महिला महाविद्यालय में प्राचार्य रही हैं. प्रवासी साहित्य की अवधारणा पर बातचीत करते हुए संस्कृत साहित्य में कालिदास के 'मेघदूत' और आधुनिक हिंदी के कवि अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' की कविता का ज़िक्र करते हुए साहित्य में इसकी उपस्थिति का विवेचन किया. भारत में औपनिवेशिक पूँजी के विस्तार के दौर में भारत से मारीशस और फिज़ी जैसे देशों में गिरमिटिया मज़दूर ले जाये गये और वहाँ उन्होंने विस्थापन का दंश झेला.
त्रिपाठी ने गिरमिटिया मज़दूरों की दशा पर लिखे गए साहित्य की भी विस्तार से चर्चा की. उन्होंने बताया कि गिरमिटिया मज़दूर की इस दारुण क़िस्म की गुलामी का अभिमन्यु अनंत के उपन्यास लाल पसीना में गहराई से देखा जा सकता है. प्रवासी साहित्य के इस दौर के लेखन में संघर्ष प्रधान चीज़ है. इसके बाद प्रवासन की मनोभूमि का दूसरा पड़ाव जहाँ स्वेच्छा से जाना हुआ. नौकरी के लिए, रोज़गार के लिए. इस दौर के साहित्यकारों में उषा प्रियंवदा, सुषम वेदी, तेजेन्द्र शर्मा और उषाराजे सक्सेना. इनके साहित्य में प्रवासन की संस्कृति और नयी चुनौतियों को करीने से दर्ज़ किया गया. यहाँ प्रवासी साहित्य में संघर्ष कुछ भिन्न है. वर्तमान दौर में प्रवासी साहित्य में कई महत्त्वपूर्ण रचनाकार अपनी रचनाओं के द्वारा वैश्विक समस्याओं प्रवासी जीवन की अस्मिता और पूँजी के बढ़ते संकट को दर्ज़ करते हैं. यहाँ अपने अस्तित्व की खोज का प्रश्न प्रमुख है.