नई दिल्लीः 'हिन्दी साहित्य का इतिहास: अध्ययन की नयी दृष्टि, विचारधारा और विमर्श' नामक वाणी डिजिटल की व्याख्यानमाला में प्रसिद्ध आलोचक, मीडिया विशेषज्ञ और स्तंभ लेखक सुधीश पचौरी ने 'उत्तर-आधुनिकता और उत्तर-आधुनिकतावाद' पर कई वैचारिक बातें कहीं. पचौरी का कहना था कि उत्तर आधुनिकता ने हाशिये की ढेर सारी चीज़ों को केन्द्र में स्थापित कर दिया है. नए पूँजीवाद अथवा वृद्ध पूँजीवाद के साथ मिलकर तकनीकी की नई दुनिया ने साहित्य में बने बनाए ढाँचे को तोड़ दिया है. इस दौर में मेगा नैरेटिव का स्वरूप भी बदला है. विधाएँ ख़त्म हुई हैं और सब मिक्स हुआ है. यह भी बात ज़रूर हुई है कि अब ओरिजिनल जैसी कोई चीज नहीं रह गई. आज का लेखन पैरोडी को और सटायर को बहुत महत्त्व देता है. आज के लेखन में अद्वितीयता जैसी कोई चीज़ बची ही नहीं है.
दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक रहे पचौरी ने यह दावा किया कि साहित्य में मनोहर श्याम जोशी उत्तर आधुनिक लेखक हैं. साथ ही हिन्दी साहित्य के इतिहास में आज उत्तर आधुनिकता की दृष्टि से हमें तुलसी, कबीर और सूरदास को भी पढ़ना चाहिए. इतिहास लेखन में भी साहित्य इतिहास की तीसरी परम्परा की खोज़ उत्तर आधुनिकता में नव इतिहास शास्त्र के माध्यम से किया जाना चाहिए. उन्होंने कहा कि सोशल मीडिया के इस दौर में बहुत कुछ ऐसा भी लिखा जा रहा है जो उत्तर आधुनिकता की दृष्टि से बेहद ज़रूरी और महत्त्वपूर्ण है. पचौरी ने दावा किया कि उत्तर आधुनिकता हमें चीज़ों को सामान्य और सरल तरीक़े से देखने और समझने में मदद करती है. यहाँ श्रेष्ठता का कोई सिद्धान्त नहीं है. यह साहित्य के लोकतान्त्रिक स्वरूप को नयी दृष्टि प्रदान करता
दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक रहे पचौरी ने यह दावा किया कि साहित्य में मनोहर श्याम जोशी उत्तर आधुनिक लेखक हैं. साथ ही हिन्दी साहित्य के इतिहास में आज उत्तर आधुनिकता की दृष्टि से हमें तुलसी, कबीर और सूरदास को भी पढ़ना चाहिए. इतिहास लेखन में भी साहित्य इतिहास की तीसरी परम्परा की खोज़ उत्तर आधुनिकता में नव इतिहास शास्त्र के माध्यम से किया जाना चाहिए. उन्होंने कहा कि सोशल मीडिया के इस दौर में बहुत कुछ ऐसा भी लिखा जा रहा है जो उत्तर आधुनिकता की दृष्टि से बेहद ज़रूरी और महत्त्वपूर्ण है. पचौरी ने दावा किया कि उत्तर आधुनिकता हमें चीज़ों को सामान्य और सरल तरीक़े से देखने और समझने में मदद करती है. यहाँ श्रेष्ठता का कोई सिद्धान्त नहीं है. यह साहित्य के लोकतान्त्रिक स्वरूप को नयी दृष्टि प्रदान करता