अमृतसर: साहित्यकार वोट नहीं दिलाते इसलिए चुनावी शोर में उनकी याद भी नहीं रहती. पंजाब की माटी से गहरा नाता रखने वाले उर्दू के बड़े लेखक सआदत हसन मंटो की पुण्यतिथि को लोगों ने याद नहीं रखा. 11 मई, 1912 को मंटो का जन्म लुधियाना जिले के समराला में हुआ था. जन्म के कुछ वर्ष बाद उनके अभिभावक अमृतसर आ गए और कूचा वकीला कटड़ा जैमल सिंह में रहने लगे. मंटो की शिक्षा भी हिंदू कॉलेज में हुई. मंटो के जीवनकाल में उनके 22 लघुकथा संग्रह, एक उपन्यास, पांच रेडियो नाटक और व्यक्तिगत रेखाचित्र वाले दो संग्रह प्रकाशित हुए थे. 1947 में देश विभाजन के बाद वे पाकिस्तान चले गए और 18 जनवरी, 1955 को लाहौर में अंतिम सांस ली. दैनिक जागरण संवाददाता नितिन धीमान की रिपोर्ट के अनुसार विधानसभा चुनाव में जीतने के लिए साम-दाम-दंड-भेद की नीति अपना रहे राजनेताओं ने उनकी पुण्यतिथि पर श्रद्धा के दो पुष्प चढ़ाना भी मुनासिब नहीं समझा. न ही जिला प्रशासन ने उन्हें नमन किया. जबकि 1919 में जलियांवाला बाग नरसंहार के समय मंटो सात वर्ष के थे, लेकिन इस नरसंहार ने बाल मन पर गहरी छाप छोड़ी थी. इसी नरसंहार पर उन्होंने पहली कहानी 'तमाशा' लिखी थी.
सामाजिक कार्यकर्ता नरेश जौहर के अनुसार मंटो की कथा कहानियां आज भी जनमानस को समाज के लिए प्रेरणाप्रद हैं. कहानी बू, खोल दो, ठंडा गोश्त और चर्चित टोबा, टेक सिंह के लिए प्रसिद्ध मंटो ने अमृतसर के मुस्लिम हाईस्कूल में पढ़ाई की. 1931 में हिंदू सभा कालेज में प्रवेश लिया. उन दिनों स्वतंत्रता आंदोलन उभार पर था. बाद में उन्होंने टोबा टेक सिंह, काली सलवार जैसी कहानियां भी लिखी. नंदिता दास ने 2018 में मंटो के जीवन पर फिल्म भी बनाई. लोग आज भी मंटो की कहानियों को शौक से पढ़ते हैं. उनकी कृतियों में अमृतसर में संकरी गलियां तथा तंग बाजारों का जिक्र भी है. पाकिस्तान में उनके 14 कहानी संग्रह प्रकाशित हुए. कई कहानियों पर विवाद उपजा. मंटो ने तर्क दिया कि अफसाना मेरे दिमाग में नहीं, जेब में होता है. जौहर बताते हैं कि अमृतसर से मंटो का गहरा लगाव था, पर दुखद है कि यहां उनकी प्रतिमा, यादगार अथवा स्मारक तक नहीं है.