विनय कुमार समकालीन कविता के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं। पेशे से मनोचिकित्सक विनय कुमार का कविता संग्रह मॉल में कबूतर खासा चर्चित रहा है। विनय कुमार सिर्फ कविकाएं ही नहीं लिखते हैं उनका गद्य भी महत्वपूर्ण होता है। देशभर के महत्वपूर्ण पत्र पत्रिकाओं में उनके लेख भी प्रकाशित होते रहते हैं। वो मनोवेद नामक पत्रिका के संपादक भी हैं। उनकी ताजा कविता पता पाठकों के लिए पेश है।

 

–          विनय कुमार

 

वे मुझसे मेरा पता पूछते हैं

मैं क्या कहूँ

 

काटे जाने तक

पेड़ भी एक पता है

आँधियों में बराबर होने से

पहले रेत का एक ढूह भी

एक मौसम के लिए तो

खेत में खड़ी

बाजरे की फ़सल भी एक पता है

 

जैसे सेंट पीटर्सबर्ग विशाल हर्मिटिज संग्रहालय में

२.१० पर बंद घड़ी

एक महान क्रांति के सम्भव हो जाने के

चरम क्षण का पता है

वैसे ही पुरी के सागर तट पर

उठी एक प्रचंड लहर

किसी के साँवले चेहरे पर झलके उजले विस्मय का

 

अजीब-अजीब पते होते हैं लोगों के

कोई अपने कमरे के बाहर टँगी नेम प्लेट में रहता है

तो कोई किस फ़ाइल पर टँकी एक घुग्ग़ी में

कोई एक ईमेल आईडी पर

तो कोई अपनी वॉल या हैश टैग पर

किसी पत्रिका का कोई अंक उठाकर देख लीजिए

पता लग जाएगा

कि सारे लेखक और कवि

घर में नहीं

किसी मोबाइल नम्बर के वाहक

सेलफ़ोन में रहते हैं

 

कोई एक पते पर पूरा का पूरा नहीं रहता

जैसे मेरी आत्मा गाँव की उस कोठरी में रहती है

जहाँ मैं पैदा हुआ था

मगर शरीर एक महानगर के आलीशान बंगले में

मेरी हैसियत मेरे काले कारनामों में

मगर कंगाली मेरे क़र्ज़ कूटते बैंक खाते में

मेरी ताक़त मेरी बोली की मिठास में

मगर मेरी सारी कमजोरियाँ मेरी कविताओं में

 

कभी चाँद सूत कातने वाली

एक बुढ़िया का पता था

और अब उन कामयाब लम्हों का

जब मानव के चरण वहाँ पड़े

मगर वह अब भी उन बादलों का पता है

जिनका अवगुंठन यह सुनिश्चित करता हैं

कि उसका चेहरा आज किसी को न दिखे

 

होने को तो समय भी एक पता है

कुछ कवि आज भी

वीरगाथा काल में  बसते हैं

कुछ भक्तिकाल में विहँसते हैं

कुछ रीतिकाल में लसते हैं

मगर अंतत: उत्तर आधुनिक रिज़ॉर्ट में जा फँसते हैं

 

दरअसल तुम वहाँ नहीं रहते कविवर

जहाँ लिखते हो

रहते तो वहाँ हो

जहाँ लोगों को दिखते हो

रहने को तो एक फ़रार हत्यारा

और डिमेंशिया का मारा

एक खोया हुआ बूढ़ा भी कहीं न कहीं रहता है

मगर पता तो वही है

जो किसी न किसी जाननेवाले को पता हो

 

विज्ञान हमेशा आज में रहता है

कला सर्वकाल  में

किंतु सत्ता चाहे जितनी सुहासिनी-सुमधुरभाषिणी हो

रहती मध्यकाल में ही है

 

वे मुझसे मेरा स्थायी पता पूछते हैं

और तब मुझे याद आता है कि

मेरा एक स्थायी पता भी है

जहाँ रहना तो दूर

गए भी काफ़ी दिन भए

और मैं अपने वर्तमान पते के गालों पर एक

हल्की चपत लगाकर उन्हें कहता हूँ

दुनिया तो कब की बदल चुकी मुंशी जी

यहाँ तो फ़ुटपाथ और लैम्प पोस्ट भी

स्थायी पते की हैसियत रखते हैं !