पटना, 31 अगस्त।बिहार विरासत विकास समिति और पटना संग्रहालय के संयुक्त तत्वाधान में 'मिथिला के पंजी प्रथा और उसके संरक्षण ' विषय पर व्याख्यान आयोजित किया गया। पटना संग्रहालय में आयोजित पंजी प्रथा की लगभग 10 वर्षों 1990 से 2000 तक मैक्रो फिल्मिंग के माध्यम से संरक्षण वाले शोधवेत्ता कैलाश चन्द्र झा ने कहा " बिहार में विरासत चप्पे-चप्पे पर बिखरी पड़ी है।इसे दखेने के लिए शोधपरक नज़रिया चाहिए। मैंने 90 के दशक में उत्तर बिहार के मिथिला क्षेत्र में पंजी की विरासत को सहेजने का काम शुरू किया। इसकी शुरुआत मधुबनी ज़िला के सौराठ और कोइलख गांव से हुई। इसके लिए अमेरिका के साल्ट लेक सिटी स्थित जिनयोलॉजिकल सोसायटी ऑफ यूटा से संपर्क किया ताकि पंजी प्रथा के दस्तावेज़ीकरण में नवीनतम विधियों का प्रयोग किया। जिनयोलॉजिकल सोसायटी फैमिली हिस्ट्री से सम्बंधित विश्वप्रसिद्ध पुस्तकालय है। " कैलाश चन्द्र झा ने आगे विस्तार से बताते हुए कहा " जिनयोलॉजिकल सोसायटी के प्रतिनिधियों के साथ मिलकर नेपाल के जनकपुर से लेकर मधुबनी, दरभंगा, पूर्णिया के मैथिल ब्राह्नणों व कर्ण कायस्थों तथा कर्मकांडी महापात्रों के साथ मिलकर प्राचीन पांडुलिपियों की मैक्रोफिलमिंग की गई। इस काम मे कोइलख के पंजीकार कीर्तिनाथ झा, तथा विद्वान स्व जयदेव मिश्र ने काफी सहयोग किया।"
कैलाश चन्द्र झा ने बताया की " पंजी प्रथा का प्रारंभ 1324 में मिथिला के तत्कालीन राजा हरिसिंह देव के द्वारा किया गया। पंजी में इन सात सौ सालों का पूरा वंशवृक्ष अंकित है। मैंने 48 पंजीकारों में से 42 का मैक्रोफिलमिंग करने में सफल हो पाए। कुछ-कुछ पंजीकारों के पास 5 हजार से 20 हजार तक पत्र मौजूद थे ।इन सबको धीरे धीरे दस्तावेज़ीकृत करने का काम किया गया। इसकी एक कॉपी नेशनल आर्काइव, नई दिल्ली के पास भी मौजूद है।" कैलाशचंद्र झा ने पंजियों की विशिष्टताओं का जिक्र करते हुए बताया " पंजीकार लोग वंशवृक्ष बनाने के दौरान यदि परिवार में कोई मनोरोगी है, या कुछ चारित्रिक विशिष्टताओं को भी कोर्डवर्ड में लिख दिया करते थे। "
मिथिला कला, संस्कृति व परंपरा के जानकार श्रुतिधारी सिंह ने उदाहरण देते हुए बताया " एक पंजीकार ने भारी बारिश में अतिथि को घर में आश्रय न देने वाले को 'घरनुक़्क़ा और पहुंनहुक्का' की संज्ञा दी डाली। यानी विपत्ति में पड़े मनुष्य को देख घर में छिप जाने वाला (घरनुक़्क़ा) व अतिथि या पाहुन को हांकने वाला ( पहुंनहुक्का ) वाला। लेकिन दुख की बात है आज इन पंजियों के कोर्डवर्ड को समझने वाले पंजीकार लगभग समाप्त हो गए हैं। अभी अंतिम पंजीकार बचे हुए हैं, पर वृद्ध हैं और कभी भी दुनिया छोड़ जा सकते हैं। इसे पूर्व हमें उन पंजीकार से पंजी को समझे उसे डिकोड करने की प्रक्रिया सीख लेनी होगी अन्यथा फिर काफी देर हो जाएगी। वैसे इस मामले में काफी विलम्ब हो चुका है। कैलाश चन्द्र झा ने इन पंजियों की माइक्रो फिल्मिंग का काम कर एक बहुत बड़ा काम किया है। वैसे पंजी का इतिहास छठी-शताब्दी में कुमारिल भट्ट तक जाता है। उस महान दार्शनिक ने भी इसका जिक्र किया है।"
इस बातचीत को भैरवलाल दास जी ने भी संबोधित किया।
बिहार विरासत समिति के कार्यपालक निदेशक विजय चौधरी ने कहा " बिहार में पंजी प्रथा अति समृद्ध रही है। इसके कारण ही हम अपने पूर्वजों की वंशावली तथा उनके प्रारंभिक स्थलों को जान सकते हैं।"
इस व्याख्यान में शहर के बड़ी संख्या में गणमान्य लोग मौजूद थे। प्रमुख लोगों में डॉ सत्यजीत, खुदा बख़्श लाइब्रेरी के पूर्व निदेशक इम्तेयाज अहमद, इतिहासकार ओ.पी जायसवाल, प्रो एन. के चौधरी, आभा झा, डॉ विभा सिंह, सर्वोदय शर्मा, शिवकुमार मिश्र, योगेन्द्र प्रसाद सिंह, पटना आर्ट कालेज के प्रिंसिपल अजय कुमार, बिहार राज्य अभिलेखागार के पूर्व निदेशक विजय कुमार, सीटू तिवारी, गोपाल शर्मा आदि मौजूद थे।