प्रो जगदीश्वर चतुर्वेदी
नामवर सिंह मोह मुक्त जीवन जीने की कला में निष्णात थे। उनके मन और लेखन कर्म में झांकने पर वे एकदम दूसरे रूप में नजर आते हैं,आमतौर पर वे चीजों के मोह से बंधे दिखते थे लेकिन यथार्थ रुप में वे मोहमुक्त थे,क्ष।एकदम भक्तिकालीन संत नानक की तरह,वे गृहस्थ थे,लेकिन गृहस्थी से ऊपर! मार्क्सवादी थे लेकिन जड़ता से मुक्त, प्रतिबद्ध थे लेकिन निजता से मुक्त। सब चीजों में शामिल रहना और उन सबसे विरत रहकर लिखना यह कला सिर्फ नामवर सिंह के पास थी। आमतौर पर उनसे परिचित लोग उनके बाह्य आचरण पर वाद विवाद करते थे लेकिन वे जीवन और साहित्य में मछली की तरह जीवन जीते थे,वे इनके बिना जी नहीं सकते थे और इन सबसे ऊपर निर्गुण संत परंपरा के मूल्यों में जीते रहे।
नामवरजी के नज़रिए में ' मैं' और ' सामाजिक' का द्वंद्व है। इसमें उनका 'मैं' हारा है ,और ' सामाजिक' जीता है। नामवरजी ने' आत्म- संरक्षण' की कभी कोशिश नहीं की। उनका ' मैं' बार-बार पदों पर ठेलता है लेकिन ' सामाजिक' हमेशा बाहर खींचता है।
नामवरजी का बाग़ी भाव मंच पर बहुत अपील करता है और इस बाग़ी भाव को अनेक लोग मार्क्सवादी भाव समझते हैं। नामवरजी के मंचीय बाग़ी भाव का मार्क्सवाद से कोई लेना देना नहीं है। यह अनेकबार नाॅस्टेल्जिया के रुप में आया है।लेकिन उनका पूरा व्यक्तित्व और नज़रिया नॉस्टेलजिया से मुक्त था। उनके लिए वर्तमान ही मुख्य था। नामवरजी की वक्तृता शैली में नॉस्टेल्जिया जब भी आता है तो बाग़ी होकर ही आता है। बाग़ी भाव में वे जब भी बोलते हैं तो भिन्न रंग में नज़र आते हैं क्योंकि कोई न कोई समस्या उनको अंदर से उद्वेलित करती है और इसके समाधान को वे बाग़ी भावबोध में खोजने की कोशिश करते हैं।इसके चलते वे अपने ही नज़रिए से मुठभेड़ करते नज़र आते हैं।
नामवरजी के बाग़ी का नॉस्टेल्जिया अंततः स्वयं उनके ही ख़िलाफ़ ले जाता था क्योंकि वे समस्या विशेष से परेशान रहते थे और यही परेशानी उनको बार -बार बाग़ी बनाती थी, नास्टेल्जिक बनाती थी, परंपरा की ओर ले जाती थी। वे जीवंत तत्वों की खोज करते थे और इस क्रम में अपने को प्रासंगिक बनाते थे, मंचों पर अपनी माँग बनाए रखते थे, हर खेमे में माँग बनाए रखते थे। यह उनके मंचीय तौर पर ज़िन्दा बने रहने का मंत्र था। वे जब मंच पर होते थे तो मंच पर होने से ज़्यादा मंच के बाद याद किए जाते थे। अनेक वक़्ता मंच पर ही अप्रासंगिक हो जाते हैं लेकिन नामवरजी के साथ ऐसा नहीं था वे मंच पर बोलते हुए तो प्रासंगिक रहते थे उनके भाषणों को लोग बाद में भी याद रखते थे। उनके विचारों की बुनियाद थी जीवंतता । यह जीवंतता उनको रवीन्द्रनाथ नाथ टैगोर की परंपरा से मिली थी।वे अपने को कबीर और टैगोर की बनायी दूसरी परम्परा में रखकर देखते और जीते थे।कबीर से उन्होंने व्यंग्य शैली ग्रहण की और परंपरा और इतिहास बोध रवीन्द्रनाथ टैगोर से ग्रहण किया,जबकि व्यवहारवाद उन्होंने अपने गुरू आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी से ग्रहण किया, दूसरी ओर नास्तिक दृष्टि राहुल सांकृत्यायन से सीखी और मार्क्सवाद भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन से सीखा। नामवरजी के विचारों को हमें परंपरागत प्रतिबद्धता के दायरे के बाहर रखकर देखना होगा। वे बहुलतावादी प्रतिबद्धता को अभिव्यंजित करते हैं। वे महज़ पार्टी प्रतिबद्धता या वर्गीय प्रतिबद्धता के आधार पर समझ में नहीं आ सकते। बहुलतावादी प्रतिबद्धता का दायरा व्यापक है और इसमें विभिन्न विचारधाराओं के लिए जगह है। बहुलतावाद उनके वैचारिक नज़रिए को गहरे प्रभावित करता था जिसके कारण वे कम्युनिस्ट पार्टी से बाहर निकल गए थे। नामवर जी की प्रतिबद्धताएँ वर्ग से निकलकर बहुलतावादी संरचनाओं की ओर चली जाती थी और वे विगत छह दशकों से इसे समृद्ध करते रहे । 'नामवर सिंह की विश्वदृष्टि सभी किस्म की रूढ़िबद्धताओं और विचारधारा से मुक्त थी, यह विश्वदृष्टि विश्वसनीय, गतिशील और अनिश्चित थी। वे बार-बार भारतीय ज्ञानमीमांसा के क्षेत्र में विश्वदृष्टि के नए रूपों की तलाश में लौटते थे। उनकी विश्वदृष्टि का आधार था भारतीय सत्ता के हित। वे इस चक्कर में वर्गीय,जातीय,जातिवादी और धार्मिक दायरे के परे जाकर देखते थे। वे न तो मार्क्सवाद को विश्वदृष्टि का आधार बनाते थे और ना ही किसी अन्य मार्क्सवाद विरोधी दृष्टिकोण को। बल्कि अमेरिकी उपयोगितावाद उनकी विश्वदृष्टि की धुरी है। वे दुनिया के साहित्य,दर्शन और समीक्षा को पढ़ते थे,अपने को अपडेट रखते थे, लेकिन उसमें बहते नहीं थे। उपयोगितावादी कुशल तैराक की तरह उसमें तैरते रहते थे लेकिन उनके विचारों को विश्राम हिन्दी साहित्य में मिलता था। इस अर्थ में वे ग्लोबल-लोकल एक साथ थे।
नामवर सिंह ने अपनी उपयोगितावादी विश्वदृष्टि को सचेत रूप से विकसित किया हैं,सचेत रूप से ‘पावरगेम’ का उपकरण बनाया ,फलतः उनके पीछे सत्ताधारी वर्गों की समूची शक्ति काम करती रही । इसके कारण वे कम्पलीट भारतीय बुद्धिजीवी नजर आते हैं। हिन्दी साहित्य में उनकी रमी हुई प्रतिभा के हम सब कायल हैं। नामवर सिंह की पढ़ाने की शैली में हर दिन एक नयी तैयारी दिखती थी और उसका सामयिक चीजों और घटनाओं के साथ भी गहरा संबंध हुआ करता था। उनके पढ़ाने की शैली में युवामन के प्रति सम्मान का भाव होता था। युवामन को वे अपने प्रति भक्ति, राजनीतिक लगाव और प्रतिबद्धता के आधार पर परखते थे।उनके सबसे प्रिय छात्र वे ही होते थे जो उनके अनन्यभक्त थे। ये लोग साहित्य ज्यादा हांकते थे और राजनीति कम करते थे। वे उन छात्रों से कम प्रेम करते थे जो उनके भक्त नहीं थे,राजनीति और साहित्य ज्यादा करते थे। भारतीय भाषा केन्द्र में अधिसंख्य छात्र ऐसे थे जो नामवरसिंह के अनन्य भक्त नहीं थे। यह एक विलक्षण बात थी कि वे मार्क्सवाद का व्यवहार में इस्तेमाल करने वाले छात्रों को कम पसंद करते थे। निजी तौर पर नामवर सिंह जब भी बातें करते थे तो उसमें एक खास का किस्म उदारभाव होता था जो उनकी सामान्य सी बातों के जरिए मन को स्पर्श करता था। मुझे जो चीज सबसे अच्छी लगती है वो है उनकी उदार भाषा। लिखने और बोलने में उनकी मर्मस्पर्शी उदार भाषा अभी भी मन को छूती है। ईर्ष्या भी होती है कि ऐसी मर्मस्पर्शी भाषा मेरे पास क्यों नहीं है। मेरे व्यक्तित्व और मानसिक गठन का पूरा काय़ाकल्प करने में उनकी बहुत बड़ी भूमिका रही है। उनकी कक्षाएं ,भाषण,बातचीत और किताबें प्रभावित करती रही हैं। आज भी संकट की अवस्था में उनका लिखा पढ़ता हूँ और आनंद लेता हूँ,मन ही मन आलोचना करता हूँ कि वे गहराई में जाकर और क्यों नहीं लिखते। एक अन्य पहलू जो काफी विवादास्पद है। जिसकी ओर कभी लिखकर किसी ने ध्यान नहीं खींचा। नामवर सिंह जब भारतीय भाषा केन्द्र के अध्यक्ष थे या भाषा संस्थान के डीन बने या अकादमिक परिषद के सदस्य थे तो उस समय पद रहते हुए अमूमन वे छात्रों के खिलाफ और विश्वविद्यालय प्रशासन के साथ हुआ करते थे। प्रशासन के खिलाफ उन्होंने कभी राय जाहिर नहीं की। इसके कारण एक अजीब स्थिति हमेशा रहती थी। हमलोग छात्र प्रतिनिधि के नाते जब भी किसी समस्या पर उनसे समर्थन के लिए अनुरोध करने घर जाते थे तो वे हमेशा सहयोग का आश्वासन देते थे,लेकिन अकादमिक परिषद या प्रशासन के सामने हमेशा छात्रों के खिलाफ राय देते थे। यानी निजी बातचीत में नामवर और प्रशासन में नामवर में अंतर करके देखा जाना चाहिए। निजी बातचीत, सभा,गोष्ठी आदि में वे हमेशा छात्रों के पक्ष में होते थे लेकिन प्रशासनिक मीटिंगों में हमेशा प्रशासन के अ-लोकतांत्रिक फैसलों के हिस्सेदार रहे हैं। मैं 1980-81 में भाषा संस्थान में कौंसलर था। मैंने अनेक मर्तबा उनको अ-लोकतांत्रिक फैसले लेते देखा है और हमको मजबूर होकर उनके खिलाफ आंदोलन करना पड़ता था और बादमें आंदोलन के दबाव में उन्होंने अपने फैसले बदले भी हैं। इस समूची प्रक्रिया ने एक विलक्षण अनुभव दिया है। मौटे तौर पर जेएनयू में जो लोग सामान्य जीवन में प्रगतिशील हैं, वे जरूर नहीं है कि प्रशासन में भी प्रगतिशील हों। जीवन में प्रगतिशील और प्रशासनिकस्तर पर अ-लोकतांत्रिक का द्वैत जेएनयू के अधिकांश प्रगतिशील शिक्षकों की सामान्य प्रकृति रहा है। नामवरसिंह में भी यह फिनोमिना था।
नामवरसिंह के मध्यवर्गीय व्यक्तित्व के अनेक रूप हैं। जिस तरह सामान्यतौर पर मध्यवर्ग के पास एकाधिक मुखौटे हैं ,वैसे ही नामवर सिंह के पास भी एकाधिक मुखौटे हैं। ये मुखौटे उनके आत्मकथा के अंशों में सहज रूप में व्यक्त हुए हैं। नामवर सिंह के व्यक्तित्व का एक पहलू है उनका सामान्य उदार व्यवहार, लेकिन एक अन्य पहलू भी है जिसमें वे कभी कभी वैचारिक प्रतिबद्धता के प्रतीक के रूप में भी नजर आते हैं। परिवार नामक संस्था में उनकी अनुपस्थिति और अपने परिवार से लंबे समय तक दूरी के कारण उनके व्यक्तित्व में एक खास किस्म की जटिलता पैदा हुई है.इसने उनके समूचे नजरिए को प्रभावित किया है। परंपरागत नियमों को तोड़ने और साहित्यिक रूढ़ियों को तोड़ने में उनकी खास दिलचस्पी रही । नियम तोड़ने में वक्तृत्व कला का उन्होंने जमकर इस्तेमाल किया । जो चीजें वे सामान्य जीवन में अर्जित नहीं कर पाए उसे उन्होंने भाषणकला और लेखन में हासिल करने की कोशिश की ।इस प्रसंग में उनकी किताबों में उद्धरणों के चयन को देखें तो उनके नजरिए को साफतौर पर समझा जा सकता है। नामवरसिंह स्वयं उद्धरणों की एक किताब लिखना चाहते थे।
नामवर जी ने अपने बारे में लिखा-"पिता जी ने मेरी इच्छा के विरुद्ध मेरा विवाह किया था, सही है लेकिन उसका दंड मेरी पत्नी भोगे यह उचित नहीं, यह मैं जानता था। और जानता हूँ लेकिन जाने क्यों मन में ऐसी गाँठ थी कि मैं पत्नी को पति का सुख नहीं दे सका।"
" मैंने कभी अपने गुरुदेव हजारी प्रसाद द्विवेदी से पूछा था, 'सबसे बड़ा दुख क्या है?' बोले, 'न समझा जाना।' और सबसे बड़ा सुख ? मैंने पूछा। फिर बोले, 'ठीक उलटा! समझा जाना।' अगर लगे कि दुनिया में सभी गलत समझ रहे हैं लेकिन एक भी आदमी ऐसा है जिसके बारे में तुम आश्वस्त हो कि वह तुझे समझता है तो फिर उसके बाद किसी और चीज की कमी नहीं रह जाती।"
" मैं जन्मकुंडली, हस्तरेखा, ज्योतिष किसी में विश्वास नहीं करता और न मृत्युबोध का विलास पालने की कामना है मेरी। दरअसल बीमारियाँ मेरे लिए इसलिए दुखद हैं कि वे किसी पर निर्भर बनाती हैं।"
"एक चीज याद रखो, विरोध उसी का होता है जिसमें तेज होता है। विरोध से ही शक्ति नापी जाती है। जब छोटी सी चिन्गारी दिखाई पड़ती है तो लोग घी नहीं पानी डालते हैं।"
"दरअसल हम लेखक लोग मध्यवर्ग के हैं और मध्यवर्ग में जो कुछ ऊपर ठीक-ठाक जगह पर पहुँच जाता है तो लोग अचानक उसको सत्ता और प्रतिष्ठान के प्रतीक के रूप में देखने लगते हैं। वस्तुतः हम लोग विशाल तंत्र के पुर्जे हैं। कोई छोटा है तो कोई बड़ा है।"
"मैंने किसी के हाथ के नीचे तो अपना हाथ नहीं रखा। रखा है तो किसी के हाथ पर हाथ रखा है। और रखा है तो उसके बदले में कुछ लिया नहीं है।"