नई दिल्लीः दिल्ली विश्वविद्यालय के श्यामा प्रसाद मुखर्जी महिला महाविद्यालय और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के तत्वावधान में 'मीडिया, भाषा, समाज और संस्कृति' विषय पर एक राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित हुई. पांच सत्रों में विभाजित इस संगोष्ठी में कई विद्वान वक्ताओं ने भाग लिया. संगोष्ठी का चौथा सत्र 'सांस्कृतिक वर्चस्ववाद और मीडिया की भूमिका' विषय पर था, जिसकी अध्यक्षता आलोचक व कला समीक्षक ज्योतिष जोशी ने की. अन्य वक्ता थे प्रख्यात पत्रकार-संपादक राजीव कटारा तथा कवि शशिभूषण द्विवेदी. दोनों वक्ताओं ने पत्रकारिता जगत की व्यावहारिक समस्याओं के साथ आज की राजनीति और सांस्कृतिक वर्चस्व की स्थिति पर अपनी बातें रखीं और भारत की बहुलतावादी सामासिकता की चर्चा की. अध्यक्षीय वक्तव्य में ज्योतिष जोशी ने वैश्विक परिप्रेक्ष्य में सांस्कृतिक वर्चस्व की नीति को उसकी ऐतिहासिकता में टटोला. उनका कहना था कि पश्चिम में लगभग 200 वर्ष पूर्व आई राष्ट्र- राज्य की अवधारणा के बीच दुनिया ने दो विश्वयुद्ध सांस्कृतिक वर्चस्व के कारण ही झेला, जिसमें लाखों लोग मारे गए. हिटलर का पूरी दुनिया पर राज करने की मंशा के पीछे यह अपनी पहचान और अस्मिता की श्रेष्ठता का ही दम्भ था जो शेष दुनिया को उसने अपने से कमतर माना.
जोशी का कहना था कि ब्रिटिश शासन ने अपने उपनिवेशों में इस वर्चस्ववाद को बनाये रखते हुए अफ्रीका और लैटिन अमेरिकी देशों की संस्कृतियों को मिटाने की कोशिश की. भारत में उसने दूसरी नीति अख्तियार करते हुए यहां की संस्कृति को कमतर माना और अपनी संस्कृति और धर्म की श्रेष्ठता सिद्ध करने में शक्ति लगाई. इसे ही गांधी जी ने पाशविकता कहा और देह से शुरू होकर देह की सुविधा में मरखप जानेवाली इस संस्कृति को नकारा. उन्होंने दावा किया कि सोवियत संघ ने भी इसी गलती को दोहराया और एकाधिकारवादी संस्कृति और भाषा को थोपने के कारण वह बिखरा. वहां की अनेक भाषाएं और संस्कृतियां जब खतरे में पड़ीं तो देश ही विभाजित हो गया. उन्होंने निष्कर्ष दिया कि भारत की शक्ति इसकी बहुलता है. जब भारत में केवल सनातन धर्मावलम्बी थे तो भी यहां की व्यवस्था में अनेक विचार, मत और मान्यताएं रहीं. एक तरफ ब्रह्मवाद तो दूसरी तरफ शुद्ध भौतिकता को प्रश्रय देता यह देश सांस्कृतिक रूप से अभिन्न रहा पर एक रेखीय कभी न रहा. भारतीयता असल में यहां के जन मन में बसी करुणा और बंधुत्व जैसी मान्यताओं में ही रही है, जिसे गांधी के साथ रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद , रमन महर्षि और अरविंद ने समझा था. उनका कहना था कि सांस्कृतिक वर्चस्व अपनी पहचान की श्रेष्ठता का अमानवीय दम्भ है जो सैकड़ों सालों से मानवीयता के लिए समस्या बना हुआ है, जिसे स्वीकार करना एक किस्म का रंगभेद और मानवभेद ही है. अंत में उन्होंने सुराज, मीडिया की भूमिका आदि पर अपने विचार विस्तार से रखा. उन्होंने कहा कि हमारी नागरिक नैतिकता ही सांस्कृतिक वर्चस्व को तोड़ेगी और राजनीति सहित सूचना माध्यमों को भी अपनी हैसियत में रहने सीख देगी. महाविद्यालय की प्राचार्या डॉ. साधना शर्मा पूरे समय मौजूद थीं.